।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    कार्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें गुणोंका वर्णन



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सातवें अध्यायके बारहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ कहते हैं कि संसारमें सात्त्विक, राजस और तामस जितने भी भाव हैं, वे सब मेरेसे ही होते हैं, पर वे मेरेमें और मैं उनमें नहीं हूँ अर्थात् सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ । कारण कि गुणोंकी मेरे सिवाय स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है । अतः साधककी दृष्टि मेरी तरफ ही रहनी चाहिये, गुणोंकी तरफ नहीं । जिनकी दृष्टि गुणोंकी तरफ रहती है, वे इन सात्त्विक, राजस और तामस भावोंसे मोहित हो जाते हैं, इनमें ही रच-पच जाते हैं । अतः वे गुणोंसे परे मेरेको नहीं जानते (७ । १३) । मेरी यह गुणमयी माया तरनेमें बड़ी ही कठिन है‒दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया; परन्तु जो केवल मेरी ही शरण हो जाते हैं, मेरे ही आश्रित रहते हैं, वे इस मायाको तर जाते हैंमामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ (७ । १४) । तात्पर्य यह हुआ कि जो मनुष्य इन गुणोंसे सर्वथा विमुख होकर केवल मेरे ही सम्मुख हो जाता है, वह गुणोंसे तर जाता है ।

तेरहवें अध्यायके चौदहवें श्‍लोकमें आये ‘सर्वेन्द्रियगुणाभासम्’ पदमें ‘सर्वेन्द्रियगुण शब्द इन्द्रियोंके पाँचों विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध)-का वाचक है । इन इन्द्रियोंको और इनके विषयोंको ज्ञेयतत्त्व परमात्मा ही प्रकाशित करता है । वह ज्ञेयतत्त्व सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंसे रहित भी है और इन गुणोंका भोक्ता भी है अर्थात् वह तत्त्व निर्गुण भी है और सगुण भी है‒‘निर्गुणं गुणभोक्तृ च

तेरहवें अध्यायके उन्नीसवें श्‍लोकमें प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ)-का वर्णन करते हुए भगवान्‌ कहते हैं कि प्रकृति और पुरुषदोनों अलग-अलग हैं अर्थात् प्रकृतिसे पुरुष (चेतन) अलग है । उस प्रकृतिसे ही विकार, गुण और कार्य एवं करणके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ‒ये तीनों होते हैं । अतः इन तीनोंमेंसे किसीके भी साथ पुरुषका सम्बन्ध नहीं है । परन्तु पुरुष जब प्रकृतिमें स्थित होता है, प्रकृतिके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह (प्रकृतिस्थ पुरुष) प्रकृतिके गुणोंका भोक्ता बन जाता है । यह गुणोंका भोक्ता बनना, गुणोंका संग करना ही उसकी ऊँच-नीच योनियोंमें ले जानेका कारण बनता है (१३ । १९२१) । परन्तु जो पुरुष अपनेको और गुणोंके सहित प्रकृतिको अलग ठीक तरहसे जान लेता है अर्थात् प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध है ही नहीं‒इस वास्तविकताका अनुभव कर लेता है, वह मुक्‍त हो जाता है (१३ । २३) । तात्पर्य है कि पुरुषका न तो प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है और न प्रकृतिजन्य गुणोंके साथ ही सम्बन्ध है ।

गुण तो प्रकृतिजन्य हैं और पुरुष (स्वयं) गुणोंसे रहित हैं‒यह बतानेके लिये भगवान्‌ने तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें पुरुषको निर्गुण कहा है ।

तेरहवें अध्यायमें गुणोंका वर्णन संक्षेपसे हुआ है । अतः चौदहवें अध्यायमें उनका विस्तारसे वर्णन करनेके लिये भगवान्‌ बताते हैं कि सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों गुण प्रकृतिसे उत्पन्‍न होते हैं (१४ । ५) । इनमेंसे सत्त्वगुणका स्वरूप निर्मल, प्रकाशक तथा अनामय है, रजोगुणका स्वरूप रागात्मक है और तमोगुणका स्वरूप मोहनात्मक है । सत्त्वगुण सुख तथा ज्ञानके संगसे, रजोगुण कर्मकी आसक्‍तिसे और तमोगुण निद्रा, आलस्य तथा प्रमादसे बाँधता है (१४ । ६८) । सत्त्वगुण सुखमें लगाकर, रजोगुण कर्मोंमें लगाकर और तमोगुण ज्ञानको ढककर एवं प्रमादमें लगाकर मनुष्यपर विजय करता है । इन तीनों गुणोंमेंसे एक बढ़ता है तो बाकी दो दब जाते हैं । रजोगुण और तमोगुणको दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है, सत्त्वगुण तथा तमोगुणको दबाकर रजोगुण बढ़ता है तथा सत्त्वगुण और रजोगुणको दबाकर तमोगुण बढ़ता है (१४ । ९‒१०) ।