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इन्द्रियोंमें प्रकाश और बुद्धिमें विवेककी जागृति हो जाय तो ये बढे़ हुए सत्त्वगुणके
लक्षण हैं । अन्तःकरणमें लोभ, कर्म करनेकी प्रवृत्ति,
नये-नये कर्म करना, अशान्ति और स्पृहा उत्पन्न
हो जाय तो ये बढ़े हुए रजोगुणके लक्षण हैं । अन्तःकरणमें अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह आ जाय तो ये बढ़े हुए तमोगुणके
लक्षण हैं (१४ । ११‒१३) । मृत्युके
समय सत्त्वगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मनुष्य स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें जाता है,
रजोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मनुष्य मृत्युलोकमें मनुष्य बनता
है और तमोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मनुष्य पशु, पक्षी
आदि मूढ़ योनियोंमें पैदा होता है (१४ । १४-१५) । श्रेष्ठ
कर्मोंका फल सात्त्विक तथा निर्मल होता है, राजस
कर्मका फल दुःख होता है और तामस कर्मका फल अज्ञान (मूढ़ता) होता है (१४ । १६) । सत्त्वगुणसे
ज्ञान, रजोगुणसे लोभ और तमोगुणसे प्रमाद, मोह तथा मूढ़ता पैदा होती है (१४ । १७) । सत्त्वगुणमें स्थित मनुष्य ऊर्ध्वलोकोंमें
जाते हैं, रजोगुणमें स्थित मनुष्य मध्यलोक (मृत्युलोक)-में ही
रहते हैं और तमोगुणमें स्थित मनुष्य अधोगतिमें जाते हैं (१४ । १८) । जब
विचारशील मनुष्य इन तीनों गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ और परिवर्तन गुणोंमें ही हो रहे हैं‒ऐसा दृढ़
बोध हो जाता है, तब उसे अपनेमें
स्वतःसिद्ध अकर्तृत्वका, असंगताका, निर्लिप्तताका
अनुभव हो जाता है और वह भगवद्भावको प्राप्त हो जाता है (१४ । १९) ।
देहके उत्पादक इन तीनों गुणोंका अतिक्रमण करके जन्म-मरणसे रहित हुआ वह मनुष्य अमरताका
अनुभव करता है, जो कि स्वयंमें स्वतःसिद्ध है (१४
। २०) । गुणातीत
हुए अर्थात् अमरताको प्राप्त हुए मनुष्यमें सात्त्विकी,
राजसी अथवा तामसी वृत्तियोंके आने-जानेसे राग-द्वेष नहीं होते । इतना
ही नहीं, वह उदासीनकी तरह रहता है, गुणोंसे
विचलित नहीं होता तथा ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं’‒ऐसा अनुभव करके अपनेमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तनका अनुभव नहीं करता (१४
। २२-२३) । यह बात तो ज्ञानयोगकी दृष्टिसे कही गयी । भक्तियोगकी दृष्टिसे जब साधकका
ध्येय, लक्ष्य केवल भगवान् ही रह जाते हैं, तब वह स्वतः गुणोंसे उपराम (अतीत) होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है
(१४ । २६) ।
जैसे
जलके द्वारा वृक्षकी शाखाएँ बढ़ती हैं, ऐसे
ही सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंके द्वारा संसारवृक्षकी शाखाएँ
नीचे, मध्य और ऊपरके लोकोंमें फैली हुई हैं (१५ । २) । तात्पर्य
है कि गुणोंके संगसे ही यह जीव अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकमें
जन्म लेता है । गुणोंके संगसे ही यह भोक्ता बनता है, पर स्वयं
निर्लिप्त ही रहता है‒इस बातको विवेकी मनुष्य ही जानते हैं, अविवेकी
मनुष्य नहीं (१५ । १०) । मनुष्योंकी स्वभावसे उत्पन्न हुई श्रद्धा तीन तरहकी होती
है‒सात्त्विकी, राजसी और तामसी (१७ । २) । जिनकी जैसी श्रद्धा
होती है, वैसी ही उनकी निष्ठा होती है और निष्ठाके अनुसार ही
उनकी प्रवृत्ति होती है । सात्त्विक मनुष्य देवताओंका पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसोंका पूजन करते हैं और तामस मनुष्य भूत-प्रेतोंका पूजन
करते हैं (१७ । ३-४) । अगर कोई मनुष्य पूजन न करता हो तो भोजनकी रुचिसे उसकी पहचान
हो सकती है । सात्त्विक मनुष्यको रसयुक्त, स्निग्ध आदि भोजनके
पदार्थ प्रिय लगते हैं, राजस मनुष्यको अधिक कड़वे, खट्टे आदि भोजनके पदार्थ प्रिय लगते हैं और तामस मनुष्यको अधपके, रसरहित, अपवित्र आदि भोजनके पदार्थ प्रिय लगते हैं (१७
। ८‒१०)
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