Listen न प्रवृत्तिर्निवृतिश्च
बाधिका साधिका मता । द्वयोर्मध्ये तु जीवानां रागो वै बाधको मतः ॥ लौकिक दृष्टिसे किसी क्रियामें प्रवृत्त होना ‘प्रवृत्ति’ और क्रियासे निवृत्त होना ‘निवृत्ति’ कहलाती है । ऐसे ही लौकिक दृष्टिसे गृहस्थाश्रम प्रवृत्तिपरक
और संन्यासाश्रम निवृत्तिपरक कहलाता है । परन्तु गीताकी दृष्टिसे अगर भीतरमें विषयोंका
राग,
कामना, आसक्ति है तो बाहरकी निवृत्ति भी प्रवृत्ति है और भीतरमें राग,
कामना, आसक्ति नहीं है तो बाहरकी प्रवृत्ति भी निवृत्ति है । जो बाहरकी
क्रियाओंसे तो निवृत्त हो गया है, पर मनसे रागपूर्वक विषयोंका चिन्तन करता है,
उसकी इस निवृत्तिको गीताने मिथ्याचार (पाखण्ड) बताया है (३ ।
६) । गीतामें कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒इन तीनों ही साधनोंको प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक
बताया गया है । तात्पर्य है कि ये तीनों ही साधन प्रवृत्तिमें रहते हुए,
गृहस्थमें रहते हुए, सब काम करते हुए भी किये जा सकते हैं और निवृत्तिमें रहते हुए,
सांसारिक कामोंसे निवृत्त होकर भी किये जा सकते है;
जैसे‒ कर्मयोग (१) प्रवृत्तिपरक कर्मयोग‒जिसमें कर्मफलकी इच्छा, कामना, आसक्ति न हो और अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन किया जाय,
वह प्रवृत्तिपरक कर्मयोग है । तात्पर्य है कि शास्त्रविहित कर्म
करते हुए,
सांसारिक प्रवृत्तिमें रहते हुए भी निर्लिप्त रहना प्रवृत्तिपरक
कर्मयोग है । जैसे, कर्म करनेमें तेरा अधिकार है, फलमें नहीं (२ । ४७); योगमें अर्थात् समतामें स्थित होकर तू कर्म कर (२ । ४८);
न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताकी प्राप्ति होती
है और न कर्मोंके त्यागसे ही (३ । ४); तुझे नियत कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये;
क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है (३ । ८);
ब्रह्माजीने भी सृष्टिरचनाके समय प्रजासे कर्तव्यपालनके लिये
कहा (३ । १०‒१२);
भगवान् भी लोकसंग्रहके लिये कर्म करते हैं (३ । २२‒२४); आदि ।
(२) निवृत्तिपरक कर्मयोग‒जिसमें कर्मोंसे उपरति रहती है और पदार्थोंका त्याग रहता है,
वह निवृत्तिपरक कर्मयोग है । यह कर्मोंसे उपराम होना और पदार्थोंका
त्याग करना भी केवल लोगोंके हित (कल्याण)-के लिये ही होता है अर्थात् निवृत्तिरूप कर्म भी संसारके हितके
लिये ही होता है, इसमें अपना कुछ भी मतलब नहीं होता । जैसे,
शरीर और अन्तःकरणको वशमें करनेवाला,
सब प्रकारके संग्रहका त्याग करनेवाला और संसारकी आशासे रहित
कर्मयोगी केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं (४ । २१) । |