।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें प्रवृत्ति और 

निवृत्तिपरक साधन



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ज्ञानयोग

(१) प्रवृत्तिपरक ज्ञानयोग‒गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं; गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता नहीं है; सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें, इन्द्रियोंमें ही हो रही हैं‒ऐसा समझकर कर्तृत्वाभिमानसे रहित होकर क्रियाएँ करना प्रवृत्तिपरक ज्ञानयोग है । जैसे, गुण-कर्मके विभागको जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें ही हो रही है‒ऐसा मानकर कर्म करते हुए भी उनमें आसक्त नहीं होता (३ । २८); जो पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको ठीक-ठीक जानता है, वह सब तरहका बर्ताव करता हुआ भी बन्धनको प्राप्‍त नहीं होता (१३ । २३); जिसमें अहंकृतभाव और फलेच्छा नहीं है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मारनेपर भी अर्थात् घोर-से-घोर कर्म करनेपर भी उस कर्मसे बँधता नहीं (१८ । १७); आदि ।

(२) निवृत्तिपरक ज्ञानयोग‒सांसारिक प्रवृत्तिसे, कर्मोंसे निवृत्त होकर एकान्तमें केवल अपने स्वरूपका, परमात्माका ध्यान-चिन्तन करना निवृत्तिपरक ज्ञानयोग है । जैसे, सात्त्विकी बुद्धिसे युक्त, वैराग्यके आश्रित, एकान्तमें रहनेके स्वभाववाला और नियमित भोजन करनेवाला ज्ञानयोगी साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके, शरीर-वाणी-मनको वशमें करके, शब्दादि विषयोंका त्याग करके और राग-द्वेषको छोड़कर निरन्तर परमात्माके ध्यानमें लगा रहता है, वह अहंकार, हठ, घमण्ड, काम, क्रोध और संग्रहका त्याग करके तथा ममतारहित एवं शान्त होकर ब्रह्मप्राप्‍तिका पात्र हो जाता है (१८ । ५१५३)

भक्तियोग

(१) प्रवृत्तिपरक भक्तियोग‒जिसमें कर्म तो सांसारिक होते हैं, पर वे भगवान्‌की प्रसन्‍नताके लिये, भगवान्‌के आश्रित होकर, भगवत्पूजनकी दृष्टिसे किये जाते हैं, वह प्रवृत्तिपरक भक्तियोग है । जैसे, तू जो कुछ कर्म करता है, वह सब मेरे अर्पण कर (९ । २७); मेरे लिये कर्म करता हुआ तू सिद्धिको प्राप्‍त हो जायगा (१२ । १०); मनुष्य अपने-अपने कर्मोंके द्वारा उस परमात्माका पूजन करके सिद्धिको प्राप्‍त हो जाता है (१८ । ४६); मेरा भक्त मेरे आश्रित होकर सब कर्म सदा करता हुआ मेरी कृपासे अविनाशी पदको प्राप्‍त हो जाता है (१८ । ५६); आदि ।

(२) निवृत्तिपरक भक्तियोग‒जिसमें सांसारिक कर्मोंसे उपराम होकर केवल भगवत्सम्बन्धी जप-ध्यान, कथा-कीर्तन आदि कर्म किये जाते हैं, वह निवृत्तिपरक भक्तियोग है । जैसे, निरन्तर मेरेमें लगे हुए वे दृढ़व्रती भक्त भक्तिपूर्वक मेरे नामका कीर्तन करते हैं, मेरी प्राप्‍तिके लिये उत्कण्ठापूर्वक साधन करते हैं और मेरेको नमस्कार करते हुए मेरी उपासना करते हैं (९ । १४); तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें ही मनवाला हो जा, मेरा ही पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको ही नमस्कार कर (९ । ३४); मेरेमें मनवाले, मेरेमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्त आपसमें मेरे गुण, प्रभाव आदिको जनाते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं (१० । ९); आदि ।

तात्पर्य यह है कि साधन करनेकी शैली दो तरहकी है, एकमें तो व्यवहारको रखते हुए परमात्माकी तरफ चलते हैं और एकमें व्यवहारका त्याग करके परमात्माकी तरफ चलते हैं । व्यवहारको रखते हुए साधन करना प्रवृत्तिपरक है और व्यवहारका त्याग करके साधन करना निवृत्तिपरक है । जैसे, मनु, जनक आदि राजा प्रवृत्तिपरक हुए हैं और सनकादि, शुकदेवजी आदि निवृत्तिपरक हुए हैं । वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒इन तीनों ही साधनोंमें निवृत्ति है अर्थात् प्रवृत्तिमें भी निवृत्ति है और निवृत्तिमें भी निवृत्ति है । कारण कि इन तीनों ही साधनोंमें संसारके सम्बन्ध (राग)-का त्याग और परमात्मासे सम्बन्ध होता है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !