Listen ज्ञानयोग (१) प्रवृत्तिपरक ज्ञानयोग‒गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं;
गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता नहीं है;
सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें, इन्द्रियोंमें ही हो रही हैं‒ऐसा समझकर कर्तृत्वाभिमानसे रहित
होकर क्रियाएँ करना प्रवृत्तिपरक ज्ञानयोग है । जैसे,
गुण-कर्मके विभागको जाननेवाला ज्ञानयोगी ‘सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें ही हो रही है’‒ऐसा मानकर कर्म करते हुए भी उनमें आसक्त नहीं होता (३ । २८);
जो पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको ठीक-ठीक जानता है,
वह सब तरहका बर्ताव करता हुआ भी बन्धनको प्राप्त नहीं होता
(१३ । २३); जिसमें अहंकृतभाव और फलेच्छा नहीं है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मारनेपर भी अर्थात् घोर-से-घोर कर्म
करनेपर भी उस कर्मसे बँधता नहीं (१८ । १७); आदि । (२) निवृत्तिपरक ज्ञानयोग‒सांसारिक प्रवृत्तिसे, कर्मोंसे निवृत्त होकर एकान्तमें केवल अपने स्वरूपका,
परमात्माका ध्यान-चिन्तन करना निवृत्तिपरक ज्ञानयोग है । जैसे,
सात्त्विकी बुद्धिसे युक्त, वैराग्यके आश्रित, एकान्तमें रहनेके स्वभाववाला और नियमित भोजन करनेवाला ज्ञानयोगी
साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके, शरीर-वाणी-मनको वशमें करके, शब्दादि विषयोंका त्याग करके और राग-द्वेषको छोड़कर निरन्तर
परमात्माके ध्यानमें लगा रहता है, वह अहंकार, हठ, घमण्ड, काम, क्रोध और संग्रहका त्याग करके तथा ममतारहित एवं शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका
पात्र हो जाता है (१८ । ५१‒५३) भक्तियोग (१) प्रवृत्तिपरक भक्तियोग‒जिसमें कर्म तो सांसारिक होते हैं,
पर वे भगवान्की प्रसन्नताके लिये,
भगवान्के आश्रित होकर, भगवत्पूजनकी दृष्टिसे किये जाते हैं,
वह प्रवृत्तिपरक भक्तियोग है । जैसे,
तू जो कुछ कर्म करता है, वह सब मेरे अर्पण कर (९ । २७);
मेरे लिये कर्म करता हुआ तू सिद्धिको प्राप्त हो जायगा (१२
। १०);
मनुष्य अपने-अपने कर्मोंके द्वारा उस परमात्माका पूजन करके सिद्धिको
प्राप्त हो जाता है (१८ । ४६); मेरा भक्त मेरे आश्रित होकर सब कर्म सदा करता हुआ मेरी कृपासे
अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है (१८ । ५६); आदि । (२) निवृत्तिपरक भक्तियोग‒जिसमें सांसारिक कर्मोंसे उपराम होकर केवल भगवत्सम्बन्धी जप-ध्यान,
कथा-कीर्तन आदि कर्म किये जाते हैं,
वह निवृत्तिपरक भक्तियोग है । जैसे,
निरन्तर मेरेमें लगे हुए वे दृढ़व्रती भक्त भक्तिपूर्वक मेरे
नामका कीर्तन करते हैं, मेरी प्राप्तिके लिये उत्कण्ठापूर्वक साधन करते हैं और मेरेको
नमस्कार करते हुए मेरी उपासना करते हैं (९ । १४); तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें ही मनवाला हो जा, मेरा ही पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको ही नमस्कार कर (९ । ३४);
मेरेमें मनवाले, मेरेमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्त आपसमें मेरे गुण,
प्रभाव आदिको जनाते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य-निरन्तर
सन्तुष्ट रहते हैं (१० । ९); आदि । तात्पर्य यह है कि साधन करनेकी शैली दो तरहकी है,
एकमें तो व्यवहारको रखते हुए परमात्माकी तरफ चलते हैं और एकमें
व्यवहारका त्याग करके परमात्माकी तरफ चलते हैं । व्यवहारको रखते हुए साधन करना प्रवृत्तिपरक
है और व्यवहारका त्याग करके साधन करना निवृत्तिपरक है । जैसे,
मनु, जनक आदि राजा प्रवृत्तिपरक हुए हैं और सनकादि,
शुकदेवजी आदि निवृत्तिपरक हुए हैं । वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोग,
ज्ञानयोग और भक्तियोग‒इन तीनों ही साधनोंमें निवृत्ति है अर्थात्
प्रवृत्तिमें भी निवृत्ति है और निवृत्तिमें भी निवृत्ति है । कारण कि इन तीनों ही
साधनोंमें संसारके सम्बन्ध (राग)-का त्याग और परमात्मासे सम्बन्ध होता है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |