Listen समतादिषु चिह्नेषु सिद्धानां तु समानता
। तदीयव्यवहारे तु क्रियाभावविभिन्नता ॥ ‘कर्मयोग’ कामना (फलेच्छा)-के त्यागसे आरम्भ होता है (२ । ४८) और कामनाके
सर्वथा त्यागमें ही समाप्त होता है (२ । ५५) । अतः कर्मयोगमें कामनाके त्यागकी बात
मुख्य रहती है । ‘ज्ञानयोग’ असत्-सत्, प्रकृति-पुरूष, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके विवेकसे आरम्भ होता है (१३ । १९) । और
असत्से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदमें ही समाप्त होता है (१३ । ३४) । अतः ज्ञानयोगमें
असत्-सत्का विवेक मुख्य रहता है । ‘भक्तियोग’ भगवान्की परायणतासे आरम्भ होता है (१२ । ६) और भगवत्परायणतामें
ही समाप्त होता है (१२ । १४) । अतः भक्तियोगमें भगवत्परायणता मुख्य रहती है । उपर्युक्त तीनों योग जिससे आरम्भ होते हैं,
उसीमें उनकी पूर्णता होती है । अतः गीतामें जहाँ कर्मयोगसे सिद्ध
महापुरुषोंका वर्णन आया है (२ । ५५‒७२), वहाँ कर्मयोगी साधकोंका भी वर्णन आया है (२
। ५९,६४-६५ आदि) । जहाँ ज्ञानयोगसे सिद्ध महापुरुषोंका वर्णन आया
है (१४ । २२‒२५), उससे पहले ज्ञानयोगी साधकोंका वर्णन आया है (१४ । १९-२०) । ऐसे ही
जहाँ भक्तियोगसे सिद्ध महापुरुषोंका वर्णन आया है (१२ । १३‒१९), उससे पहले भक्तियोगी
साधकोंका वर्णन आया है (१२ । ६‒१०) । साधनावस्थामें कर्मयोगीकी कर्म करनेमें ज्यादा प्रवृत्ति रहती
है;
अतः सिद्धावस्थामें भी उसकी कर्मोंमे स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती
है । इसलिये कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंमें उदासीनताका वर्णन नहीं आया है
(६ । ७‒९) । ज्ञानयोगी असत्का त्याग करके अपने स्वरूपमें स्थित रहता है;
अतः उसकी संसारसे स्वाभाविक उदासीनता रहती है (१४ । २३) । भक्तियोगीका
भगवान्में प्रेम होनेसे वह संसारसे उदासीन हो जाता है (१२ । १६) । तीनों ही योगोंसे सिद्ध महापुरुष अहंता-ममतासे रहित हो जाते
हैं (कर्मयोगी २ । ७१; ज्ञानयोगी १८ । ५३; भक्तियोगी १२ । १३) । तीनों ही सिद्धोंमें राग-द्वेषका अभाव
हो जाता है (कर्मयोगी २ । ५७; ज्ञानयोगी १४ । २२; भक्तियोगी १२ । १७) । तीनोंमें ही समता रहती है (कर्मयोगी ६
। ७‒९;
ज्ञानयोगी १४ । २४-२५; भक्तियोगी १२ । १८) । भक्तियोगमें सब कुछ वासुदेव ही हैं (७ । १९)‒ऐसा अनुभव होनेसे
प्राणिमात्रके प्रति मित्रता और करुणाका भाव विशेषतासे प्रकट होता है (१२ । १३),
जब कि कर्मयोग और ज्ञानयोगमें वैसा नहीं होता । कोई भी साधक किसी भी मार्गसे चले,
अन्तमें उसकी पूर्णता होनेपर सब एक हो जाते हैं । ऐसा होनेपर
भी कर्मयोगीको ज्ञानयोगकी बातें विशेषरूपसे समझमें आ जाती हैं और भक्तियोगकी बातें
साधारणरूपसे (थोड़ी) समझमें आती हैं । ज्ञानयोगीको कर्मयोग और भक्तियोग‒इन दोनोंकी ही
बातोंका ज्ञान नहीं होता; परन्तु भक्तियोगीको कर्मयोग और ज्ञानयोग‒इन दोनोंकी ही बातोंका
प्रायः ज्ञान हो जाता है । कर्मयोगमें कामनाओंके त्यागकी कुछ कमी रहनेसे और
ज्ञानयोगमें अपनेमें कुछ विशेषता दीखनेसे अभिमान रह सकता है; क्योंकि
कर्मयोगी और ज्ञानयोगीकी अपनी निष्ठा होती है । अतः अभिमानको दूर करनेकी जिम्मेवारी
खुद उनपर ही रहती है । परन्तु भक्तियोगीमें अभिमान रह ही नहीं सकता; क्योंकि
वह पहलेसे ही भगवान्के परायण रहता है । हाँ, भगवत्परायणतामें कमी रहनेसे भक्तियोगीमें भी अभिमान
रह सकता है, पर उस अभिमानको दूर करनेकी जिम्मेवारी भगवान्पर
ही रहती है, भक्तपर नहीं; क्योंकि वह भगवन्निष्ठ होता है । तात्पर्य है कि तीनों योगोंकी अपनी-अपनी मुख्यता होनेसे तीनों
योग अलग-अलग हैं । ऐसा होनेपर भी तत्त्व, समता, निर्विकारता आदिकी प्राप्तिमें तो तीनों योगोंसे सिद्ध महापुरुषोंमें
एकता रहती है, पर उनके व्यवहारमें भिन्नता रहती है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |