।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें सिद्धोंके लक्षण



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समतादिषु  चिह्नेषु  सिद्धानां  तु  समानता ।

तदीयव्यवहारे   तु   क्रियाभावविभिन्‍नता ॥

‘कर्मयोगकामना (फलेच्छा)-के त्यागसे आरम्भ होता है (२ । ४८) और कामनाके सर्वथा त्यागमें ही समाप्‍त होता है (२ । ५५) । अतः कर्मयोगमें कामनाके त्यागकी बात मुख्य रहती है ।

ज्ञानयोगअसत्-सत्, प्रकृति-पुरूष, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके विवेकसे आरम्भ होता है (१३ । १९) । और असत्‌से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदमें ही समाप्‍त होता है (१३ । ३४) । अतः ज्ञानयोगमें असत्-सत्‌का विवेक मुख्य रहता है ।

भक्तियोगभगवान्‌की परायणतासे आरम्भ होता है (१२ । ६) और भगवत्परायणतामें ही समाप्‍त होता है (१२ । १४) । अतः भक्तियोगमें भगवत्परायणता मुख्य रहती है ।

उपर्युक्त तीनों योग जिससे आरम्भ होते हैं, उसीमें उनकी पूर्णता होती है । अतः गीतामें जहाँ कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषोंका वर्णन आया है (२ । ५५‒७२), वहाँ कर्मयोगी साधकोंका भी वर्णन आया है (२ । ५९,६४-६५ आदि) । जहाँ ज्ञानयोगसे सिद्ध महापुरुषोंका वर्णन आया है (१४ । २२‒२५), उससे पहले ज्ञानयोगी साधकोंका वर्णन आया है (१४ । १९-२०) । ऐसे ही जहाँ भक्तियोगसे सिद्ध महापुरुषोंका वर्णन आया है (१२ । १३‒१९), उससे पहले भक्तियोगी साधकोंका वर्णन आया है (१२ । ६‒१०) ।

साधनावस्थामें कर्मयोगीकी कर्म करनेमें ज्यादा प्रवृत्ति रहती है; अतः सिद्धावस्थामें भी उसकी कर्मोंमे स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है । इसलिये कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंमें उदासीनताका वर्णन नहीं आया है (६ । ७‒९) । ज्ञानयोगी असत्‌का त्याग करके अपने स्वरूपमें स्थित रहता है; अतः उसकी संसारसे स्वाभाविक उदासीनता रहती है (१४ । २३) । भक्तियोगीका भगवान्‌में प्रेम होनेसे वह संसारसे उदासीन हो जाता है (१२ । १६) ।

तीनों ही योगोंसे सिद्ध महापुरुष अहंता-ममतासे रहित हो जाते हैं (कर्मयोगी २ । ७१; ज्ञानयोगी १८ । ५३; भक्तियोगी १२ । १३) । तीनों ही सिद्धोंमें राग-द्वेषका अभाव हो जाता है (कर्मयोगी २ । ५७; ज्ञानयोगी १४ । २२; भक्तियोगी १२ । १७) । तीनोंमें ही समता रहती है (कर्मयोगी ६ । ७‒९; ज्ञानयोगी १४ । २४-२५; भक्तियोगी १२ । १८) ।

भक्तियोगमें सब कुछ वासुदेव ही हैं (७ । १९)‒ऐसा अनुभव होनेसे प्राणिमात्रके प्रति मित्रता और करुणाका भाव विशेषतासे प्रकट होता है (१२ । १३), जब कि कर्मयोग और ज्ञानयोगमें वैसा नहीं होता ।

कोई भी साधक किसी भी मार्गसे चले, अन्तमें उसकी पूर्णता होनेपर सब एक हो जाते हैं । ऐसा होनेपर भी कर्मयोगीको ज्ञानयोगकी बातें विशेषरूपसे समझमें आ जाती हैं और भक्तियोगकी बातें साधारणरूपसे (थोड़ी) समझमें आती हैं । ज्ञानयोगीको कर्मयोग और भक्तियोग‒इन दोनोंकी ही बातोंका ज्ञान नहीं होता; परन्तु भक्तियोगीको कर्मयोग और ज्ञानयोग‒इन दोनोंकी ही बातोंका प्रायः ज्ञान हो जाता है ।

कर्मयोगमें कामनाओंके त्यागकी कुछ कमी रहनेसे और ज्ञानयोगमें अपनेमें कुछ विशेषता दीखनेसे अभिमान रह सकता है; क्योंकि कर्मयोगी और ज्ञानयोगीकी अपनी निष्ठा होती है । अतः अभिमानको दूर करनेकी जिम्मेवारी खुद उनपर ही रहती है । परन्तु भक्तियोगीमें अभिमान रह ही नहीं सकता; क्योंकि वह पहलेसे ही भगवान्‌के परायण रहता है । हाँ, भगवत्परायणतामें कमी रहनेसे भक्तियोगीमें भी अभिमान रह सकता है, पर उस अभिमानको दूर करनेकी जिम्मेवारी भगवान्‌पर ही रहती है, भक्तपर नहीं; क्योंकि वह भगवन्‍निष्ठ होता है ।

तात्पर्य है कि तीनों योगोंकी अपनी-अपनी मुख्यता होनेसे तीनों योग अलग-अलग हैं । ऐसा होनेपर भी तत्त्व, समता, निर्विकारता आदिकी प्राप्‍तिमें तो तीनों योगोंसे सिद्ध महापुरुषोंमें एकता रहती है, पर उनके व्यवहारमें भिन्‍नता रहती है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !