।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीतामें भगवान्‌ और 

महापुरुषका साधर्म्य



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अन्वभूयत  यैस्तत्त्वं  ते   मुक्ता   एव   बन्धनात् ।

तस्मात् प्रोक्तं तु साधर्म्यं निजस्य च महात्मनाम् ॥

गीतामें भगवान्‌ और सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंमें साधर्म्य (सधर्मता)-का वर्णन हुआ है; जैसे

(१) भगवान्‌ कहते हैं कि त्रिलोकीमें मेरे लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है‘न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन’ (३ । २२) । ऐसे ही महापुरुषके लिये भी कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता‘तस्यं कार्यं न विद्यते’ (३ । १७) ।

(२) भगवान्‌ कहते हैं कि मेरे लिये प्राप्‍त होनेयोग्य कोई भी वस्तु अप्राप्‍त नहीं है‘नानवाप्‍तमवाप्‍तव्यम्’ (३ । २२) । इसी प्रकार महापुरुषका भी किसी प्राणीके साथ किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् किसी भी प्राणीसे कुछ भी पाना शेष नहीं रहतान चास्य सर्वभूतेषु कश्‍चिदर्थव्यपाश्रयः’ (३ । १८) ।

(३) कर्तव्य और प्राप्‍तव्य न रहते हुए भी भगवान्‌ लोकसंग्रहार्थ कर्म करते हैं । भगवान्‌ कहते हैं कि यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता उत्पन्‍न करनेवाला तथा सारी प्रजाका हनन करनेवाला बनूँ (३ । २३-२४) । इसी प्रकार भगवान्‌ महापुरुषको भी उसके अपने लिये कर्तव्य और प्राप्‍तव्य न रहते हुए भी तत्परतापूर्वक लोकसंग्रहार्थ कर्म करनेकी आज्ञा देते हैंकुर्याद्विद्वांस्तथासक्त-श्‍चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् (३ । २५) । अतः वे भी आसक्तिरहित होकर लोकहितार्थ कर्म करते हैं ।

(४) भगवान्‌ कहते हैं कि मुझे सब कुछ करते हुए भी अकर्ता ही जानो अर्थात् मैं कर्तृत्वाभिमानसे रहित हूँतस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्’ (४ । १३) । इसी प्रकार महापुरुषके लिये भी कहा है कि वह कर्मोंको भलीभाँति करता हुआ भी वास्तवमें कुछ नहीं करता अर्थात् वह कर्तृत्वाभिमानसे रहित हैकर्मण्य-भिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः’ (४ । २०) ।

(५) भगवान्‌ कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी मेरेको कर्म लिप्‍त नहीं करते न मां कर्माणि लिम्पन्ति’ (४ । १४) और इनके फलोंमें मेरी स्पृहा (इच्छा) नहीं है‒‘न मे कर्मफले स्पृहा’ (४ । १४) । इसी प्रकार महापुरुषको भी कर्म लिप्‍त नहीं करते‒‘न निबध्यते’ (१८ । १७) और कर्मफलमें भी उनकी स्पृहा नहीं होती‒विगतस्पृहः’ (२ । ५६) पुमांश्‍चरति निःस्पृहः’ (२ । ७१) ।

(६) भगवान्‌ स्वभावसे ही प्राणिमात्रके सुहृद् हैं‒सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (५ । २९) । इसी तरह महापुरुष भी स्वभावसे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें प्रीति रखते हैं‒‘सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५; १२ । ४) ।

(७) भगवान्‌ने अपने-आपको तीनों गुणोंसे अतीत कहा कहा है‒‘मामेभ्यः परमव्ययम्’ (७ । १३) । इसी प्रकार महापुरुषको भी तीनों गुणोंसे अतीत कहा गया है‒‘गुणातीतः स उच्यते’ (१४ । २५) ।

(८) भगवान्‌ कर्मोंमें आसक्तिरहित तथा उदासीनके सदृश स्थित हैं और उन्हें कर्म नहीं बाँधते‒‘उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु’ (९ । ९) । इसी तरह महापुरुषका भी कर्मोंमें राग नहीं होता; अतः उनको भी कर्म नहीं बाँधते‒‘उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते (१४ । २३) ।

(९) भगवान्‌की दृष्टिमें तो सत् और असत् सब कुछ मैं ही हूँ‒‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९); और महापुरुषकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव ही है‒वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९) ।

(१०) भगवान्‌ कहते हैं कि वेदोंको जाननेवाला मैं ही हूँ‒‘वेदविदेव चाहम्’ (१५ । १५) । इसी तरह महापुरुषको भी वेदोंको जाननेवाला कहा गया है‒‘स वेदवित्’ (१५ । १) ।

‒इस प्रकार भगवान्‌से साधर्म्य होनेपर भी महापुरुष भगवान्‌की तरह ऐश्‍वर्य-सम्पन्‍न नहीं होता । पूर्ण ऐश्‍वर्य तो केवल भगवान्‌में ही है‒‘ऐश्‍वर्यस्य समग्रस्य(विष्णुपुराण ६ । ५ । ७४) । जगत्‌की उत्पत्ति, पालन और संहारका कार्य भी केवल भगवान्‌के द्वारा होता है, महापुरुषके द्वारा नहीं‒‘जगद्‍व्यापारवर्जम्’ (ब्रह्मसूत्र ४ । ४ । १७) ।

भगवान्‌ और महापुरुषके लक्षणोंमें साधर्म्य बतानेका तात्पर्य है कि अनादिकालसे स्वर्ग, नरक और चौरासी लाख योनियोंमें भटकनेवाला साधारण प्राणी भी यदि मनुष्यजन्मका सदुपयोग करे तो परमात्माके जो लक्षण हैं, वे ही लक्षण जीवन्मुक्त होनेपर उसमें आ जाते हैं । जो उन्‍नति ब्रह्मलोकतक जानेपर भी नहीं होती, वही उन्‍नति जीव मनुष्यशरीरके रहते हुए कर सकता है !

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !