Listen श्रीकृष्णगीतगीतायास्तात्पर्यं
दृश्यते बुधैः । विवेकभावयोर्मध्ये तावपि द्विविधौ स्मृतौ ॥ गीताका तात्पर्य सम्पूर्ण
जीवोंके कल्याणमें है,
जिसके लिये गीताने विवेक और
भावपरक साधनोंका वर्णन किया है । गीताने विवेक दो तरहका बताया
है– (१) सत्-असतका विवेक–जो रहनेवाला है, अपरिवर्तनशील है, जिसका कभी नाश नहीं होता,
वह शरीरी और परमात्मा ‘सत्’ है और जो सदा हमारे साथ
नहीं रहता, परिवर्तनशील है, नाशवान् है, वह शरीर और संसार ‘असत्’ है (२ । ११‒३०; १३ । १९‒२३, २९‒३४; १४ । ५‒२० आदि) । (२) कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक‒कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है; प्रवृत्ति क्या है और निवृत्ति क्या है;
धर्म क्या है और अधर्म क्या है; अपना धर्म क्या है और दूसरोंका धर्म क्या है‒यह कर्तव्य-अकर्तव्यका
ज्ञान (विवेक) है (२ । ३१‒५३; ३ । ८‒१६, ३५; ४ । १५; १८ । ४१‒४८ आदि) । ऐसे ही भाव भी दो तरहका बताया
है‒ (१) निष्कामभाव (त्यागभाव)‒इस भावमें कर्मोंकी और कर्मोंके फलकी
आसक्ति, कामनाका त्याग होता है । गीतामें ‘सङ्गं
त्यक्त्वा’ (२ । ४८); ‘प्रजहाति यदा कामान्’ (२ । ५५) ‘विहाय कामान्यः सर्वान्’ (२ । ७२); ‘त्यक्त्वा
कर्मफलासङ्गं’ (४ । २०) ‘सङ्गं
त्यक्त्वा’ ( ५
। ११); ‘सङ्गं
त्यक्त्वा फलानि’ (१८ । ६); ‘सङ्गं
त्यक्त्वा फलं चैव’ (१८ । ९); ‘यस्तु कर्मफलत्यागी’ (१८ ।
११) आदि पदोंमें निष्कामभावका वर्णन हआ है । (२) अनन्यभाव (प्रेमभाव)‒संसार अन्य है । उस संसारके आश्रयका महत्त्वका
त्याग करना उससे विमुख हो जाना अनन्यभाव है । गीतामें ‘अनन्यचेताः
सततम्’ (८ । १४); ‘भक्त्या लभ्यस्त्वनन्या’ (८।२२),
‘अनन्याश्चिन्तयन्तो
माम्’ (९ ।
२२), ‘अनन्येनैव
योगेन’ (१२ ।
६) आदि पदोंमें अनन्यभावका वर्णन हुआ है । विवेक और भाव‒इन दोनोंकी मुख्यताका हरेक साधनमें होनी जरूरी है । कारण
कि इन दोनोंके बिना मनुष्य संसारमें फँस जायगा, जन्म-मरणमें चला जायगा
। तात्पर्य है कि ‘विवेक’
को महत्त्व न देनेसे मनुष्यमें जड़ता (मूढ़ता) आ जायगी
और वह अकर्तव्यमें लग जायगा, तथा ‘भाव’
(निष्कामभाव और अनन्यभाव) न होनसे मनुष्यकी संसारमें
आसक्ति‒कामना हो जायगी और वह भगवान्से विमुख हो जायगा । विवेकमें निष्कामभावका होना
भी जरूरी है (५ । २३, २६) क्योंकि अगर निष्कामभाव
नहीं होगा तो मनुष्य कामनाओंमें फँस जायगा, जिससे संसारका त्याग नहीं होगा । ऐसे ही
विवेकमें अनन्यभाव अर्थात् प्रेमभावका होना भी जरूरी है, चाहे वह प्रेमभाव स्वरूपमें
हो (५ । २४); चाहे कर्तव्य-कर्ममें
हो (१८ । ४५) । निष्कामभावमें भी विवेकका
होना बहुत आवश्यक है (४ । १९, ४१; ६ । ८ आदि); क्योंकि अगर विवेक नहीं होगा तो मनुष्य
निष्काम कैसे होगा ? ऐसे ही अनन्यभावमें भी विवेकका
होना जरूरी है (५ । २९; ९ । १३; १० । ७ आदि) क्योंकि विवेकके बिना अन्यका त्याग कैसे
होगा ? इस प्रकार गीताने मनुष्योंके
कल्याणके लिये विवेक और भावपरक साधनोंका वर्णन किया है । जहाँ क्रियापरक साधनोंका वर्णन
किया है वहाँ भी क्रियापरक साधनोंपर इतना जोर नहीं दिया है, जितना जोर विवेक और भावपरक साधनोंपर दिया
है । जहाँ क्रियापरक साधनोंपर जोर दिया है वहाँ भी वास्तवमें निष्कामभावकी ही प्रधानता
है ( २ । ४७; ३ । ८, १७-१८; ४ । १५ आदि) ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! |