।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें अर्जुनद्वारा 

स्तुति प्रार्थना और प्रश्‍न



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यत्र   यत्र  च  गीतायां  प्रोक्तं  कृष्णसखेन  वै ।

प्रार्थना कुत्रचित्तत्र क्‍वचित्प्रश्‍नः क्‍वचित्स्तुतिः ॥

स्तुतिमें भगवान्‌की महिमा, गुण, प्रभाव आदिका कथन (गान) होता है । प्रार्थनामें भगवान्‌के गुणों आदिको तत्त्वसे जाननेकी अथवा भगवान्‌से कुछ पानेकी इच्छा होती है । अपने हृदयमें कोई हलचल, संदेह, जिज्ञासा होती है, उसे दूर करनेके लिये प्रश्‍न होता है ।

स्तुतिमें भगवान्‌के प्रति आस्तिकभाव अधिक होता है । प्रार्थनामें आस्तिकभावके साथ-साथ अपनी इच्छा भी रहती है । प्रश्‍नमें केवल अपनी जिज्ञासाकी पूर्ति करना होता है ।

स्तुतिमें पूज्यभाव अधिक होता है । प्रार्थनामें पूज्यभावके साथ-साथ विश्‍वास और अपनी इच्छा भी होती है । प्रश्‍नमें केवल विषयका समाधान करनेकी इच्छा रहती है ।

स्तुतिमें भगवान्‌के गुणगानकी मुख्यता रहती है । प्रार्थनामें गुणगानकी मुख्यता होते हुए भी साथमें अपनी माँग रहती है । प्रश्‍नमें भी गुणगान होता है, पर उसमें जिज्ञासाकी पूर्ति करना, संदेह दूर करना मुख्य रहता है । इस दृष्टिसे प्रश्‍नमें जितने अंशमें भगवान्‌की विशेषता दीखती है, उतना अंश स्तुति है और जितने अंशमें समाधानकी इच्छा है, उतना अंश प्रार्थना है ।[*]

गीतामें अर्जुन जहाँ-जहाँ बोले हैं, वहाँ किसमें स्तुति है, किसमें प्रार्थना है और किसमें प्रश्‍न है‒इसको संक्षेपसे नीचे दिया जाता है‒

दूसरे अध्यायके सातवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें अपनी कमजोरीके कारण मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये‒इस विषयमें अर्जुनका प्रश्‍न है; और उत्तरार्धमें मेरा निश्‍चित कल्याण हो जाय’इसके लिये अर्जुनकी भगवान्‌से शरणागतिपूर्वक प्रार्थना है । फिर चौवनवें श्‍लोकमें स्थितप्रज्ञके क्या लक्षण है ? वह कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है ? और कैसे चलता है ?’‒इस तरह जिज्ञासापूर्वक चार प्रश्‍न हैं ।

तीसरे अध्यायके पहले और दूसरे श्‍लोकमें जब कर्मसे बुद्धि ही श्रेष्ठ है, तो फिर मेरेको घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? जिससे मैं कल्याणको प्राप्‍त हो जाऊँ, वह एक बात कहिये’‒इस तरह प्रार्थनापूर्वक प्रश्‍न है । छत्तीसवें श्‍लोकमें पाप करना न चाहते हुए भी मनुष्यके द्वारा पाप करानेवाला कौन है ?’‒इस तरह जिज्ञासापूर्वक प्रश्‍न है ।



[*] जहाँ भक्तका भगवान्‌के साथ घनिष्ठ अपनापन (सख्यभाव) होता है, वहाँ भगवान्‌के गुण दीखते हुए भी स्तुति, प्रार्थना और प्रश्‍न नहीं होते । कारण कि जब ‘मैं भगवान्‌का हूँ’, और भगवान्‌ मेरे है’, तब भगवान्‌में क्या विशेषता है और मुझमें क्या कमी है ? भक्तका भगवान्‌के साथ जो घनिष्ठ अपनापन, आत्मीयता, एकता, प्रेम है, उससे भगवान्‌को विशेष आनन्द मिलता है (भगवान्‌का यह विशेष आनन्द ही भक्तका आनन्द होता है; भक्तका अपना कोई विशेष आनन्द नहीं होता) । इस प्रेमका नाम ही माधुर्य है । इसमें स्तुति, प्रार्थना और प्रश्‍न‒ये तीनों ही नहीं होते ।