।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें अर्जुनकी 

युक्तियाँ और उनका समाधान



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यावत्यो युक्तयः सन्ति शोकमग्‍नार्जुनस्य च ।

तासां  प्रत्युत्तरं दत्तं  कृष्णेन कृपया स्वयम् ॥

पहले और दूसरे अध्यायमें अर्जुनने युद्ध न करनेके विषयमें जितनी भी युक्तियाँ (दलीलें) दी हैं, वे सभी शोक और मोहसे आविष्ट होनेके कारण अविवेकपूर्ण हैं । गीतामें भगवान्‌ने ऐसा विवेचन किया है, जिससे अर्जुनकी युक्तियोंका स्वाभाविक ही समाधान हो जाता है । भगवान्‌के विवेकपूर्ण विवेचनके सामने केवल अर्जुनकी ही नहीं, किसीकी भी अविवेकपूर्ण युक्तियाँ नहीं टिक सकतीं ।

अर्जुन कहते हैं‒मैं शकुनोंको, लक्षणोंको विपरीत देखता हूँ (१ । ३१), तो भगवान्‌ कहते हैं‒कर्मयोगी शकुनोंकी परवाह नहीं करता, प्रत्युत वह तो शुभ-अशुभ परिस्थितियोंसे भी राग-द्वेष नहीं करता (२ । ५७); मेरा भक्त शुभ-अशुभ शकुनोंका, परिस्थितियोंका त्यागी होता है (१२ । १७); तू मेरेमें चित्तवाला होकर मेरी कृपासे सम्पूर्ण विघ्‍नोंको तर जायगा (१८ । ५८) ।

अर्जुन कहते हैं‒मैं युद्धमें स्वजनोंको मारकर परिणाममें अपना कल्याण नहीं देखता (१ । ३१) तो भगवान्‌ कहते हैं‒क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है (२ । ३१); क्योंकि अपने धर्मका पालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाय, तो भी कल्याण हो जाता हैं (३ । ३५) ।

अर्जुन कहते हैं‒मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुख ही चाहता हूँ (१ । ३२), तो भगवान्‌ कहते हैं‒तेरेको किसी प्रकारकी कामना न रखकर जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके युद्ध करना चाहिये (२ । ३८) ।

अर्जुन कहते हैं‒मैं जिनके लिये राज्य, भोग आदि चाहता हूँ, वे ही मरनेके लिये सामने खडे हैं (१ । ३३), तो भगवान्‌ कहते हैं‒तू सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करके संताप (शोक) और ममतासे रहित होकर युद्ध कर (३ । ३०) । जो सम्पूर्ण कामनाओंको और स्पृहाको छोड़ देता है तथा अहंता-ममतारहित हो जाता है, वह शान्तिको प्राप्‍त होता है (२ । ७१) ।

अर्जुन कहते हैं‒युद्धमें इन धृतराष्ट्रके सम्बन्धियोंको मारकर हमें क्या प्रसन्‍नता होगी ? (१ । ३६) तो भगवान्‌ कहते हैं‒प्रसन्‍नता युद्ध करने अथवा न करनेसे नहीं होती, प्रत्युत राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा व्यवहार करनेसे होती है (२ । ६४) ।

अर्जुन कहते हैं‒युद्धमें इन कुटुम्बियोंको मारनेसे हमें पाप लगेगा (१ । ३६), तो भगवान्‌ कहते हैं‒जब तू इस स्वतःप्राप्‍त धर्ममय युद्धको नहीं करेगा, तब तेरेको पाप लगेगा (२ । ३३) ।

अर्जुन कहते हैं‒युद्धमें स्वजनोंको मारकर हम सुखी कैसे होंगे ? (१ । ३७), तो भगवान्‌ कहते हैं‒जिन क्षत्रियोंको अनायास ही ऐसा धर्ममय युद्ध प्राप्‍त हो जाता है, वे ही सुखी होते हैं (२ । ३२) ।