Listen यावत्यो
युक्तयः सन्ति शोकमग्नार्जुनस्य च । तासां प्रत्युत्तरं दत्तं कृष्णेन कृपया स्वयम् ॥ पहले और दूसरे अध्यायमें अर्जुनने
युद्ध न करनेके विषयमें जितनी भी युक्तियाँ (दलीलें) दी हैं, वे सभी शोक और मोहसे आविष्ट होनेके कारण
अविवेकपूर्ण हैं । गीतामें भगवान्ने ऐसा विवेचन किया है, जिससे अर्जुनकी युक्तियोंका स्वाभाविक
ही समाधान हो जाता है । भगवान्के विवेकपूर्ण विवेचनके सामने केवल अर्जुनकी ही नहीं, किसीकी भी अविवेकपूर्ण युक्तियाँ नहीं
टिक सकतीं । अर्जुन कहते हैं‒मैं शकुनोंको,
लक्षणोंको विपरीत देखता हूँ (१ । ३१), तो भगवान् कहते हैं‒कर्मयोगी शकुनोंकी परवाह
नहीं करता, प्रत्युत वह तो शुभ-अशुभ परिस्थितियोंसे
भी राग-द्वेष नहीं करता (२ । ५७); मेरा भक्त शुभ-अशुभ शकुनोंका, परिस्थितियोंका त्यागी होता है (१२ । १७); तू मेरेमें चित्तवाला होकर मेरी कृपासे
सम्पूर्ण विघ्नोंको तर जायगा (१८ । ५८) । अर्जुन कहते हैं‒मैं युद्धमें
स्वजनोंको मारकर परिणाममें अपना कल्याण नहीं देखता (१ । ३१) तो भगवान् कहते हैं‒क्षत्रियके
लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है (२ । ३१); क्योंकि अपने
धर्मका पालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाय, तो भी कल्याण हो जाता हैं (३ । ३५) । अर्जुन कहते हैं‒मैं न तो
विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुख ही चाहता हूँ (१ । ३२), तो भगवान् कहते
हैं‒तेरेको किसी प्रकारकी कामना न रखकर जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके युद्ध
करना चाहिये (२ । ३८) । अर्जुन कहते हैं‒मैं जिनके
लिये राज्य, भोग आदि चाहता हूँ, वे ही
मरनेके लिये सामने खडे हैं (१ । ३३), तो भगवान् कहते हैं‒तू सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें
अर्पण करके संताप (शोक) और ममतासे रहित होकर युद्ध कर (३ । ३०) । जो सम्पूर्ण कामनाओंको
और स्पृहाको छोड़ देता है तथा अहंता-ममतारहित हो जाता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है (२ । ७१)
। अर्जुन कहते हैं‒युद्धमें
इन धृतराष्ट्रके सम्बन्धियोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? (१ । ३६) तो भगवान् कहते हैं‒प्रसन्नता
युद्ध करने अथवा न करनेसे नहीं होती, प्रत्युत राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें
की हुई इन्द्रियोंके द्वारा व्यवहार करनेसे होती है (२ । ६४) । अर्जुन कहते हैं‒युद्धमें
इन कुटुम्बियोंको मारनेसे हमें पाप लगेगा (१ । ३६), तो भगवान् कहते हैं‒जब तू इस स्वतःप्राप्त
धर्ममय युद्धको नहीं करेगा,
तब तेरेको पाप लगेगा (२ ।
३३) ।
अर्जुन कहते हैं‒युद्धमें
स्वजनोंको मारकर हम सुखी कैसे होंगे ? (१ । ३७), तो भगवान् कहते हैं‒जिन क्षत्रियोंको
अनायास ही ऐसा धर्ममय युद्ध प्राप्त हो जाता है, वे ही सुखी होते हैं (२ । ३२) । |