Listen अर्जुन कहते हैं‒हम कुलके
नाशसे होनेवाले दोषोंको जानते हैं, इसलिये हमें तो युद्धसे निवृत्त हो जाना
चाहिये (१ । ३९), तो भगवान् कहते हैं‒यह तेरी नपुंसकता है, कायरता है, हृदयकी तुच्छ दुर्बलता है, इसे तू स्वीकार मत कर और अपने कर्तव्यका
पालन करनेके लिये खड़ा हो जा (२ । ३) । अर्जुन कहते हैं‒युद्ध करनेसे
परिणाममें धर्मका नाश हो जायगा (१ । ४०) तो भगवान् कहते हैं‒युद्ध न करनेसे धर्मका
नाश होगा (२ । ३३) । अर्जुन कहते हैं‒युद्ध करनेसे
परिणाममें वर्णसंकरता पैदा हो जायगी, जिससे पितरोंका पतन हो जायगा और कुलधर्म
तथा जातिधर्म नष्ट हो जायँगे (१ । ४१‒४३), तो भगवान् कहते हैं‒यदि मैं सावधान होकर
अपने कर्तव्य-कर्मका पालन न करूँ तो संकरताको पैदा करनेवाला बनूँ अर्थात् युद्धरूप
कर्तव्य-कर्म न करनेसे ही वर्णसंकरता पैदा होगी (३ । २४) ।[*] अर्जुन कहते हैं‒युद्धके परिणाममें
नरककी प्राप्ति होगी (१ । ४४), तो भगवान् कहते हैं‒कर्तव्य-कर्मरूप युद्ध करनेसे
परिणाममें नरककी प्राप्ति नहीं होगी, प्रत्युत स्वर्गकी प्राप्ति होगी (२ ।
३२, ३७) । अर्जुन कहते हैं‒हमलोग लोभके
कारण महापाप करनेमें प्रवृत्त हो गये हैं (१ । ४५), तो भगवान् कहते हैं‒इस कामरूप
लोभका त्याग करना चाहिये;
क्योंकि यह मनुष्यका शत्रु
है, पाप करानेमें हेतु है (३ । ३७) । अर्जुन कहते हैं‒मैं भीष्म
और द्रोणको बाणोंसे कैसे मारूँ ? (२ । ४), तो भगवान् कहते हैं‒ये सभी कालरूपसे मेरे द्वारा मारे
हुए हैं, तू केवल अपना कर्तव्यपालन करता हुआ निमित्तमात्र
बन जा (११ । ३३) । अर्जुन कहते हैं‒मैं गुरुजनोंको
न मारकर अर्थात् युद्ध न करके भिक्षाका अन्न खाना श्रेष्ठ मानता हूँ (२ । ५), तो भगवान्
कहते हैं‒दूसरेका धर्म भय देनेवाला है और अपने धर्मका पालन करते हुए यदि मृत्यु भी
हो जाय, तो भी अपना धर्म कल्याण करनेवाला है (३
। ३५) । अर्जुन कहते हैं‒हमलोग यह
भी नहीं जानते कि युद्ध करना ठीक है या युद्ध न करना ठीक है (२ । ६), तो भगवान् कहते
हैं‒तू नियत कर्म कर;
क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा
कर्म करना श्रेष्ठ है (३ । ८); युद्धमें तू वैरियोंको जीतेगा (११ । ३४) । नारायण ! नारायण ! नारायण
! नारायण !
[*]अर्जुनकी युक्तिके अनुसार
भी यदि विचार किया जाय तो वास्तवमें कर्तव्यका पालन न करना ही वर्णसंकरताका कारण है
। युद्धमें कुलका नाश होनेपर स्त्रियोंका दूषित होना उनका कर्तव्यच्युत होना ही है
और कर्तव्यच्युत होनेसे ही वर्णसंकरता आती है । यदि स्त्रियोंमें यह भाव रहे कि हमारे
पतियोंने युद्धरूप कर्तव्यका पालन करते हुए अपने प्राणोंका त्याग कर दिया, पर अपने कर्तव्यका त्याग नहीं किया, फिर हम अपने कर्तव्यका त्याग क्यों करें
? तो वे कर्तव्यच्युत नहीं होंगी । कर्तव्यच्युत
न होनेसे उनका सतीत्व सुरक्षित होगा, जिससे वर्णसंकरता आयेगी ही नहीं । |