Listen पृच्छति
त्वर्जुनो यावत्प्रयच्छति तदुत्तरम् । अपृष्टोऽपि स्वमन्तव्यं कृपया भाषते स्वयम् ॥ गीतामें प्रायः भगवान्का
यह स्वभाव देखनेको मिलता है कि अर्जुन जो प्रश्न करते हैं, उसका उत्तर तो भगवान् दे ही देते हैं, पर उसके सिवाय भगवान् अपनी तरफसे और भी
बातें कह देते हैं;
जैसे‒ दूसरे अध्यायके चौवनवें श्लोकमें
अर्जुनने स्थितप्रज्ञके विषयमें चार प्रश्न किये, तो भगवान्ने उन प्रश्नका उत्तर देते
हुए स्थितप्रज्ञके वर्णनके साथ-साथ साधकोंकी बातें अपनी ओरसे बतायीं । तीसरे अध्यायमें अर्जुनने
पूछा कि यदि कर्मोंकी अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है तो फिर आप मेरेको घोर कर्ममें क्यों
लगाते हैं ? उत्तरमें भगवान्ने बताया
कि कर्मोंके त्यागसे कोई भी सिद्धि नहीं होती । ऐसा कहकर सिद्धिके लिये कर्तव्य-कर्म
करनेकी आवश्यकता बतायी । फिर ब्रह्माजीकी दृष्टिसे, सृष्टिचक्रकी दृष्टिसे, सिद्धोंकी दृष्टिसे, साधकोंकी दृष्टिसे, अपनी दृष्टिसे और ज्ञानीकी दृष्टिसे लोक-संग्रहके
लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताकी बात अपनी ओरसे बतायी । तीसरे अध्यायके ही छत्तीसवें
श्लोकमें अर्जुनने पूछा कि न चाहते हुए भी बलपूर्वक पाप करानेवाला कौन है ? उत्तरमें भगवान्ने काम (कामना)-को पाप
करानेवाला बताया और उसको जीतनेकी, उसके रहनेके स्थानकी और उसको मारनेकी बातें अपनी ओरसे बतायीं
। चौथे अध्यायके आरम्भमें ‘मैंने
ही यह उपदेश सूर्यको दिया था’‒यह बात भगवान्ने अपनी ओरसे ही कही । इसपर अर्जुनने प्रश्न
किया, तो उत्तरमें भगवान्ने अपने अवतार और कर्मोंकी
बात कहकर कर्मोंके तत्त्वको जाननेकी और यज्ञोंकी बहुत-सी बातें अपनी ओरसे ही कहीं । पाँचवें अध्यायमें अर्जुनने
पूछा कि सांख्य और योगमें श्रेष्ठ कौन है ? उत्तरमें भगवान्ने कर्मयोगको श्रेष्ठ
बताया तथा सांख्ययोग और कर्मयोगके विषयमें बहुत गहरी बातें बिना पूछे बतायीं । इसमें
संतोष नहीं हुआ तो छठे अध्यायका विषय अपनी तरफसे ही आरम्भ किया और कर्मयोगकी बात बताकर
ध्यानयोगका वर्णन खूब विस्तारसे किया, जिसके विषयमें अर्जुनने पूछा ही नहीं था
।
छठे अध्यायके तैतीसवें-चौतीसवें
श्लोकोंमें अर्जुनने मनकी चंचलताके विषयमें पूछा तो भगवान्ने
आधे श्लोकमें उसका उत्तर देकर छत्तीसवाँ श्लोक अपनी ओरसे ही कहा । फिर अर्जुनने पूछा
कि जिसका अन्तकालमें साधन छूट जाता है, उसकी क्या गति होती है ? उत्तरमें भगवान्ने कहा कि कल्याणकारी
काम करनेवालेका यहाँ और मरनेके बाद भी पतन नहीं होता । यह बात बताकर भगवान्ने बयालीसवें
श्लोकमें वैराग्यवान् योगभ्रष्टकी बात अपनी ओरसे ही कही । भक्तिके विषयमें अर्जुनका
प्रश्न न होनेपर भी भगवान्ने छठे अध्यायके अन्तमें भक्तिकी बात अपनी ओरसे कही । फिर
सातवें अध्यायका विषय भी अपनी ओरसे आरम्भ करके भक्तोंकी विलक्षणता बतायी । |