।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतामें भगवान्‌के 

विवेचनकी विशेषता



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सातवें अध्यायके अन्तमें कही बातोंपर ही आठवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने सात प्रश्‍न किये । उनमेंसे छः प्रश्‍नोंका उत्तर संक्षेपसे देकर अन्तकालीन गतिविषयक सातवें प्रश्‍नका उत्तर विस्तारसे दिया और अन्तमें शुक्ल और कृष्ण-मार्गका वर्णन भगवान्‌ने अपनी ओरसे ही किया । फिर नवें अध्यायका विषय भी अपनी ओरसे शुरू करके भगवान्‌ने उसमें भक्ति और उसके सात अधिकारियोंकी बातें अपनी ओरसे ही बतायीं । इतना कहनेपर भी भगवान्‌को संतोष नहीं हुआ तो फिर दसवें अध्यायका विषय अपनी ओरसे ही आरम्भ करके उसमें योग और विभूतियोंको जाननेका फल अपनेमें दृढ़ भक्तिका होना बताया । फिर भक्तोंपर कृपा करनेकी विशेष बात अपनी ओरसे ही कही । इसको सुनकर अर्जुन बहुत प्रसन्‍न हुए और उन्होंने भगवान्‌की स्तुति की तथा योग और विभूतियोंको कहनेके लिये प्रार्थना की । भगवान्‌ने विभूतियोंका वर्णन करके अन्तमें तेरेको बहुत जाननेकी क्या जरूरत है, मेरे एक अंशमें अनन्त संसार है’‒यह बात अपनी ओरसे ही कही । इसपर अर्जुनको विश्‍वरूप देखनेकी इच्छा हुई तो भगवान्‌ने अपनी तरफसे उनको दिव्यचक्षु देकर अपना विश्‍वरूप दिखाया और ग्यारहवें अध्यायके अन्तमें अनन्यभक्तिकी महिमा कही, जिसके विषयमें अर्जुनने पूछा ही नहीं था ।

बारहवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने पूछा कि व्यक्त (सगुण-साकार) और अव्यक्त (निर्गुण-निराकार)‒दोनोंकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन है ? उत्तरमें भगवान्‌ने व्यक्तकी उपासना करनेवाले भक्तोंको श्रेष्ठ बताया । फिर भक्तिके प्रकार और सिद्ध भक्तोंके लक्षण अपनी ओरसे कहे । अव्यक्तकी उपासनामें विवेककी मुख्यता होती है । अतः भगवान्‌ने तेरहवें अध्यायमें अपनी ओरसे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, प्रकृति-पुरुष आदिका विवेचन करके विवेकका वर्णन किया । इतना वर्णन करनेपर भी भगवान्‌को संतोष नहीं हुआ तो चौदहवें अध्यायमें फिर उसी विवेकका प्रकारान्तरसे विस्तारपूर्वक वर्णन किया ।

चौदहवें अध्यायके इक्‍कीसवें श्‍लोकमें अर्जुनने गुणातीतके विषयमें तीन प्रश्‍न किये । उनका उत्तर देते हुए भगवान्‌ने गुणातीत होनेका उपाय अपनी अव्यभिचारिणी भक्ति बताया और अपनी ओरसे अपना विशेष प्रभाव कहा । फिर पंद्रहवें अध्यायमें अपनी ओरसे ही अव्यभिचारिणी भक्तिका विस्तारसे वर्णन किया, जिसके लिये अर्जुनका कोई प्रश्‍न नहीं था । इसी प्रकार भगवान्‌ने अपनी ही ओरसे भक्तिके अधिकारी और अनधिकारीका सोलहवें अध्यायमें विस्तारसे वर्णन किया ।

सत्रहवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने निष्ठा (स्थिति)-के विषयमें प्रश्‍न किया । उसके उत्तरमें तीन तरहकी श्रद्धा बताकर भगवान्‌ने अपनी ही ओरसे आहार, यज्ञ, तप और दानकी बात कही तथा ॐ तत्सत्’ नामकी व्याख्या भी की ।

अठारहवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने संन्यास और त्यागका तत्त्व पूछा । उत्तरमें भगवान्‌ने पहले त्यागका और फिर संन्यासका विचित्र ढंगसे वर्णन किया । फिर अपनी ओरसे ही शरणागतिकी और अपने संवादकी महिमाकी बात विशेषतासे कही ।

‒इस प्रकार अर्जुन ज्यों-ज्यों सुनते गये, त्यों-ही-त्यों भगवान्‌ अपनी तरफसे कहते गये । [यहाँ तो केवल दिग्दर्शन कराया गया है । पूरी बातका पता तो इन अध्यायोंको मननपूर्वक पढ़नेसे ही लगेगा ।]

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !