Listen सातवें अध्यायके अन्तमें कही
बातोंपर ही आठवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने सात प्रश्न किये । उनमेंसे छः प्रश्नोंका
उत्तर संक्षेपसे देकर अन्तकालीन गतिविषयक सातवें प्रश्नका उत्तर विस्तारसे दिया और
अन्तमें शुक्ल और कृष्ण-मार्गका वर्णन भगवान्ने अपनी ओरसे ही किया । फिर नवें अध्यायका
विषय भी अपनी ओरसे शुरू करके भगवान्ने उसमें भक्ति और उसके सात अधिकारियोंकी बातें
अपनी ओरसे ही बतायीं । इतना कहनेपर भी भगवान्को संतोष नहीं हुआ तो फिर दसवें अध्यायका
विषय अपनी ओरसे ही आरम्भ करके उसमें योग और विभूतियोंको जाननेका फल अपनेमें दृढ़ भक्तिका
होना बताया । फिर भक्तोंपर कृपा करनेकी विशेष बात अपनी ओरसे ही कही । इसको सुनकर अर्जुन
बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भगवान्की स्तुति की तथा योग और विभूतियोंको कहनेके
लिये प्रार्थना की । भगवान्ने विभूतियोंका वर्णन करके ‘अन्तमें तेरेको बहुत जाननेकी क्या जरूरत
है, मेरे एक अंशमें अनन्त संसार है’‒यह बात अपनी ओरसे ही कही । इसपर अर्जुनको
विश्वरूप देखनेकी इच्छा हुई तो भगवान्ने अपनी तरफसे उनको दिव्यचक्षु देकर अपना विश्वरूप
दिखाया और ग्यारहवें अध्यायके अन्तमें अनन्यभक्तिकी महिमा कही, जिसके विषयमें अर्जुनने पूछा ही नहीं था
। बारहवें अध्यायके आरम्भमें
अर्जुनने पूछा कि व्यक्त (सगुण-साकार) और अव्यक्त (निर्गुण-निराकार)‒दोनोंकी उपासना
करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन है ? उत्तरमें भगवान्ने व्यक्तकी उपासना करनेवाले भक्तोंको श्रेष्ठ
बताया । फिर भक्तिके प्रकार और सिद्ध भक्तोंके लक्षण अपनी ओरसे कहे । अव्यक्तकी उपासनामें
विवेककी मुख्यता होती है । अतः भगवान्ने तेरहवें अध्यायमें अपनी ओरसे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, प्रकृति-पुरुष आदिका विवेचन करके विवेकका
वर्णन किया । इतना वर्णन करनेपर भी भगवान्को संतोष नहीं हुआ तो चौदहवें अध्यायमें
फिर उसी विवेकका प्रकारान्तरसे विस्तारपूर्वक वर्णन किया । चौदहवें अध्यायके इक्कीसवें
श्लोकमें अर्जुनने गुणातीतके विषयमें तीन प्रश्न किये । उनका उत्तर देते हुए भगवान्ने
गुणातीत होनेका उपाय अपनी अव्यभिचारिणी भक्ति बताया और अपनी ओरसे अपना विशेष प्रभाव
कहा । फिर पंद्रहवें अध्यायमें अपनी ओरसे ही अव्यभिचारिणी भक्तिका विस्तारसे वर्णन
किया, जिसके लिये अर्जुनका कोई प्रश्न नहीं
था । इसी प्रकार भगवान्ने अपनी ही ओरसे भक्तिके अधिकारी और अनधिकारीका सोलहवें अध्यायमें
विस्तारसे वर्णन किया । सत्रहवें अध्यायके आरम्भमें
अर्जुनने निष्ठा (स्थिति)-के विषयमें प्रश्न किया । उसके उत्तरमें तीन तरहकी श्रद्धा
बताकर भगवान्ने अपनी ही ओरसे आहार, यज्ञ, तप और दानकी बात कही तथा ‘ॐ तत्सत्’ नामकी व्याख्या भी की । अठारहवें अध्यायके आरम्भमें
अर्जुनने संन्यास और त्यागका तत्त्व पूछा । उत्तरमें भगवान्ने पहले त्यागका और फिर
संन्यासका विचित्र ढंगसे वर्णन किया । फिर अपनी ओरसे ही शरणागतिकी और अपने संवादकी
महिमाकी बात विशेषतासे कही । ‒इस प्रकार अर्जुन ज्यों-ज्यों
सुनते गये, त्यों-ही-त्यों भगवान् अपनी
तरफसे कहते गये । [यहाँ तो केवल दिग्दर्शन कराया गया है । पूरी बातका पता तो इन अध्यायोंको
मननपूर्वक पढ़नेसे ही लगेगा ।]
नारायण ! नारायण ! नारायण
! नारायण ! |