।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतामें भगवान्‌की 

विषय-प्रतिपादन-शैली



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विवेचनस्य या शैली गीतायां विद्यते प्रभोः ।

दृश्यते  नहि  चान्यत्र  शास्त्रेषु निगमेषु  च ॥

(क)

गीतामें भगवान्‌की यह शैली देखनेमें आती है कि वे भिन्‍न-भिन्‍न साधनोंसे परमात्माकी ओर चलनेवाले साधकोंके लक्षणोंके अनुसार ही परमात्माको प्राप्‍त सिद्ध महापुरुषोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं; क्योंकि जो साधन जहाँसे आरम्भ होता है, अन्तमें वहीं उसकी समाप्‍ति होती है । जैसे‒

(१) दूसरे अध्यायके सैतालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कर्मयोगके साधकोंके लिये चार बातें (चार चरणोंमें) बतायी है‒

१.       ‒कर्मण्येवाधिकारस्ते (तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है)

२.       ‒मा फलेषु कदाचन (कर्मफलोंमें तेरा कभी भी अधिकार नहीं है)

३.       ‒मा कर्मफलहेतुर्भूः (तू कर्मफलका हेतु मत बन)

४.       मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो)

तीसरे अध्यायके अठारहवें श्‍लोकमें ठीक उपर्युक्त साधनाकी सिद्धिकी बात (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषके लक्षणोंमें) कही गयी है । यहाँ दूसरे और तीसरे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह तीसरे अध्यायके अठारहवें श्‍लोकके उत्तरार्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका किसी भी प्राणी और पदार्थसे किंचिन्मात्र भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता‒न चास्य सर्वभूतेषु कश्‍चिदर्थव्यपाश्रयः’ । यहाँ पहले और चौथे चरणमें साधकके लिये जो बात कही गयी है, वह तीसरे अध्यायके अठारहवें श्‍लोकके पूर्वार्द्धमें सिद्ध महापुरुषके लिये कही गयी है कि उसका कर्म करने अथवा न करने‒दोनोंसे ही कोई मतलब नहीं रहता‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्‍चन’

(२) चौदहवें अध्यायके उन्‍नीसवें-बीसवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने ज्ञानयोगके साधकका वर्णन करते हुए कहा है कि वह तीनों गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता । सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें ही हो रही हैं, मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है‒इस तरह अपनेको गुणोंसे सर्वथा निर्लिप्‍त जानकर वह मेरे स्वरूपको प्राप्‍त हो जाता है । वह शरीरकी उत्पत्तिके कारणरूप तीनों गुणोंका उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुःखोंसे मुक्‍त होकर अमरताका अनुभव कर लेता है ।

चौदहवें अध्यायके ही बाईसवें-तेईसवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ तीनों गुणोंको लेकर ही सिद्ध महापुरुषके लक्षणोंका वर्णन करते हैं कि तीनों गुणोंकी प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह-रूप वृत्तियोंके आ जानेपर वह उनसे द्वेष नहीं करता और उन वृत्तियोंके चले जानेपर उनके फिर आनेकी इच्छा नहीं करता । वह गुणों तथा उनकी वृत्तियोंसे उदासीनकी तरह स्थित रहता है । वह गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं‒ऐसा अनुभव करते हुए अपने स्वरूपमें स्थित रहता है ।