Listen (३) साधकके लिये भगवान्ने
कहा है कि जो मेरेको सब जगह देखता है और सबको मेरेमें देखता है, उस भक्तके लिये मैं
अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता (६ । ३०) । सिद्ध भक्तके लिये भगवान्
कहते हैं कि उसकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव ही है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९), भगवान्के सिवाय दूसरा कोई
तत्त्व है ही नहीं[*] । (४) भगवान्ने साधक भक्तके लक्षणोंमें कहा
है कि वह ‘सङ्गवर्जितः’ अर्थात् आसक्तिसे रहित और ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु’ अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंमें वैरभावसे
रहित हो जाता है (११ । ५५) । यही लक्षण भगवान्ने सिद्ध भक्तके भी बताये हैं‒‘सङ्गविवर्जितः’ (१२ । १८) और ‘अद्वेष्टा
सर्वभूतानाम्’ (१२ । १३) । अपनेमें आसक्ति और वैरभाव न आ जाय‒इस विषयमें
साधक तो सावधान रहता है, पर सिद्ध भक्तमें ये दोष स्वाभाविक ही नहीं रहते । (ख) गीता किसीके भी मतका खण्डन
नहीं करती; परन्तु अपने मतका मण्डन करनेसे
दूसरोंके मतोंका खण्डन स्वतः हो जाता है । जैसे‒अठारहवें अध्यायके दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें
भगवान्ने ‘संन्यास’ और ‘त्याग’ के विषयमें दार्शनिकोंके चार मत बताये
। दो मत संन्यासके विषयमें बताये‒काम्य कर्मोंके त्यागका नाम संन्यास है और सब कर्मोंको
दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये । दो मत त्यागके विषयमें बताये‒सम्पूर्ण कर्मोंके फलका त्याग
करनेका नाम त्याग है और यज्ञ-दान-तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये । परन्तु आगे
भगवान्के द्वारा अपने मतका मण्डन करनेसे दार्शनिकोंके इन चारों मतोंका स्वतः खण्डन
हो जाता है । इन चारों मतोंका स्वतः खण्डन कैसे होता है अर्थात् इन मतोंकी अपेक्षा
भगवान्का मत श्रेष्ठ कैसे है, इसका विवेचन इस प्रकार है‒ (१) संन्यासके पहले मतमें
केवल काम्य कर्मोंका त्याग बताया गया है; परन्तु इन काम्य कर्मोंके सिवाय नित्य
नैमित्तिक आदि आवश्यक कर्तव्य-कर्म बाकी रह जाते हैं । इस मतमें न तो कर्तृत्वाभिमानका
त्याग बताया गया है और न स्वरूपमें स्थिति बतायी गयी है । अतः यह मत पूर्ण नहीं है
परन्तु भगवान्ने अपने मतमें कर्तृत्वाभिमानका त्याग भी बताया है और स्वरूपमें स्थिति
भी बतायी है; जैसे‒अठारहवें अध्यायके सत्रहवें
श्लोकमें ‘जिसमें अहंकृतभाव नहीं है
और जिसकी बुद्धि कर्मफलमें लिप्त नहीं होती’‒ऐसा कहकर कर्तृत्वाभिमानका त्याग बताया
है और ‘अगर वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे, तो भी वह न मारता है और न बँधता है’‒ऐसा कहकर स्वरूपमें स्थिति बतायी है ।
तात्पर्य है कि जैसे सर्वव्यापक परमात्मा न करता है और न लिप्त होता है, ऐसे ही जिसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं
है, वह महापुरुष भी न करता है और न लिप्त
होता है । (२) संन्यासके दूसरे मतमें
सब कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ना बताया गया है; परन्तु सब कर्मोंका त्याग कोई कर ही नहीं
सकता (३ । ५; १८ । ११) । अतः भगवान्ने नियत कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेको राजस-तामस
त्याग बताया है । (१८ । ७-८) ।
[*] मनुष्य ऊँची अवस्थावाले साधक
और सिद्धके लक्षणोंमें अन्तर नहीं जान सकता; क्योंकि दोनोंके लक्षण मिलते-जुलते ही
होते है । दोनोंमें अन्तर इतना ही रहता है कि साधकमें सबको भगवत्स्वरूप देखनेका भाव
रहता है और सिद्धमें ‘सब कुछ भगवत्स्वरूप है’‒यह भाव स्वतः रहता है । |