।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    मार्गशीर्ष अमावस्या, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें भगवान्‌की 

विषय-प्रतिपादन-शैली



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(३) त्यागके पहले मतमें केवल कर्मोंके फलका त्याग बताया गया है; परन्तु कर्मफलका त्याग करनेपर भी कर्मोंमें आसक्ति रह सकती है । अतः भगवान्‌ने अपने मतमें कर्मासक्ति और फलासक्ति‒दोनोंके त्यागकी बात कही है (१८ । ६) ।

(४) त्यागके दूसरे मतमें यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंका त्याग न करनेकी बात कही गयी है । परन्तु भगवान्‌ अपने मतमें कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंको छोड़ना नहीं चाहिये‒केवल इतना ही नहीं, प्रत्युत इनको न करते हों तो जरूर करना चाहिये और इन तीनोंके अतिरिक्त तीर्थ, व्रत आदि कर्मोंको भी फल और आसक्तिका त्याग करके करना चाहिये (१८ । ५-६) ।

(ग)

भगवान्‌ किसी विषयको समझानेके लिये पहले उस विषयके लाभका, बीचमें हानियोंका और अन्तमें फिर उसके लाभका वर्णन करके विषयका उपसंहार करते हैं । जैसे, दूसरे अध्यायके इकतीसवें-बत्तीसवें श्‍लोकोंमें पहले भगवान्‌ युद्धरूप कर्तव्य-कर्मसे होनेवाले लाभका वर्णन करते हैं कि क्षत्रियके लिये स्वधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है । अपने-आप प्राप्‍त हुआ युद्ध स्वर्गका खुला हुआ दरवाजा है और ऐसा अनायास प्राप्‍त युद्ध जिन क्षत्रियोंको प्राप्‍त होता है, वे ही वास्तवमें सुखी हैं । फिर बीचके चार (२ । ३३‒३६) श्‍लोकोंमें युद्ध न करनेसे होनेवाली हानियोंका वर्णन करते हैं कि तू स्वधर्मका पालन नहीं करेगा तो तेरेको धर्मके त्यागका पाप लगेगा तथा तेरी अपकीर्ति भी होगी । संसारके सभी लोग तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्तिको कहेंगे । वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मरनेसे भी बढ़कर दुःखदायिनी होती है । तेरेको महारथीलोग भयके कारण युद्धसे निवृत्त हुआ मानेंगे । तू जिनकी दृष्टिमें बहुमान्य है, उनकी दृष्टिमें तू गिर जायगा । वैरीलोग तेरेको न कहनेलायक वचन कहेंगे । इससे बढ़कर दुःख तेरेको और क्या होगा ? फिर अन्तके दो (२ । ३७-३८) श्‍लोकोंमें पुनः लाभका वर्णन करते हैं कि अगर तू युद्धमें मारा भी जायगा तो स्वर्गको प्राप्‍त होगा और अगर तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा । तू जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके युद्ध करेगा तो तेरेको पाप नहीं लगेगा; अतः तू युद्ध कर ।

(घ)

भगवान्‌ जिस विषयको पहले विस्तारसे कहते हैं, आगे उसी विषयको संक्षेपसे कह देते हैं; जैसे‒

(१) तीसरे अध्यायके उन्‍नीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्‍त हो जाता है । फिर इसी बातको बीसवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें संक्षेपसे कहा कि जनकादि भी कर्मयोगसे ही परमसिद्धिको प्राप्‍त हुए हैं ।

(२) आठवें अध्यायके चौदहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः’ पदोंसे जो बात विस्तारसे कही, वही बात फिर ‘नित्ययुक्तस्य’ पदसे संक्षेपमें कही ।

(३) नवें अध्यायके सोलहवें श्‍लोकसे लेकर उन्‍नीसवें श्‍लोकतक भगवान्‌ने कार्य-कारणरूपसे अपनी विभूतियोंका विस्तारसे वर्णन किया और उसीको अन्तमें ‘सदसच्चाहम्’ पदसे संक्षेपमें बता दिया ।

(४) नवें अध्यायके चौतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु पदोंसे जो बात विस्तारसे कही, वही बात फिर मत्परायणः’ पदसे संक्षेपमें कही ।

(५) दसवें अध्यायके आठवें-नवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने कहा कि मैं संसारका मूल कारण हूँ और मेरेसे ही संसार प्रवृत्त हो रहा है‒ऐसा मेरेको मानकर मेरेमें ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं । मेरेमें चित्तवाले, मेरेमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन आपसमें मेरे गुण, प्रभाव आदिको जनाते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरन्तर संतुष्ट रहते हैं और मेरेसे प्रेम करते हैं ।’ इसी बातको फिर दसवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें संक्षेपसे कहते हैं‒उन नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं बुद्धियोग प्रदान करता हूँ ।’