।। श्रीहरिः ।।

       


  आजकी शुभ तिथि–
      माघ कृष्ण नवमी , वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीताका परिमाण

और पूर्ण शरणागति



Listen



प्राचीनकालसे ऐसी परम्परा है कि बत्तीस अक्षरोंका एक श्‍लोक मानकर किसी भी पुराण आदि ग्रन्थके श्‍लोकोंका परिमाण निर्धारित किया जाता है [*] इसके अनुसार अगर गीताके श्‍लोकोंके सम्पूर्ण अक्षरोंका परिमाण निकाला जाय, तो ७२० २६/३२ श्‍लोक होते हैं । अगर इनके साथ उवाचके तीन सौ तिरासी अक्षर जोड़ दिये जायँ, तो ७३२ २५/३२ श्‍लोक होते हैं; और यदि इनके (श्‍लोकाक्षरोंके) साथ केवल ‘पुष्पिकाके आठ सौ तिहत्तर अक्षर जोड़ दिये जाँय, तो ७४८ ३/३२ श्‍लोक होते हैं । अगर श्‍लोकोंके सम्पूर्ण अक्षरोंके साथ उवाच’, पुष्पिकाऔर अथ प्रथमोऽध्यायः’ आदिके कुल १३९३ (एक हजार तीन सौ तिरानवे) अक्षर और जोड़ें, तो ७६४ ११/३२ श्‍लोक होते हैं । इस तरह किसी भी प्रकारसे महाभारत-कथित गीताके परिमाणकी संगति नहीं बैठती । फिर भी परिमाण-सूचक श्‍लोक उपलब्ध होनेके कारण परिमाणकी संगति बैठाना आवश्यक समझकर एक संतके द्वारा प्राप्‍त संकेतके अनुसार चेष्टा की गयी है । विद्वानोंसे निवेदन है कि वे इसपर गम्भीरतासे विचार करके अपनी सम्मति देनेकी कृपा करें ।

श्रीमद्भगवद्‌गीता

श्रीमद्भगवद्‌गीताके प्रथम अध्यायको देखनेसे पता चलता है कि अर्जुन युद्धके लिये पूर्णरूपसे तैयार हैं । वे स्वयं रथी बने हैं और सारथि बने भगवान्‌को दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेकी आज्ञा देते हैं‒सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत’ (१ । २१) । सारथि बने भगवान्‌ भी रथको दोनों सेनाओंके बीचमें, पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके रथोंके ठीक सामने एक विशेष कलाके साथ खड़ा करते हैं । भगवान्‌की यह कला युद्धोन्मुख अर्जुनको कल्याणके उन्मुख करनेके लिये मानो शक्‍तिपात थी (जिसकी सिद्धि अठारहवें अध्यायके तिहत्तरवें श्‍लोकमें हो गयी) । भगवान्‌को जीवोंके कल्याणके लिये अर्जुनको निमित्त बनाकर गीताका महान् उपदेश देना था और इसके लिये अर्जुनको वैसा ही पात्र बनाना था । अतः युद्धस्थलमें पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणको अपने सामने विपक्षमें देखकर अर्जुनका छिपा मोह जाग गया । इतना ही नहीं, भगवान्‌ने स्वयं कहा भी कि हे पार्थ ! युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख‒उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति’ (१ । २५) । यहाँ भगवान्‌ने धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देख’ यह न कह करके कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहा है । ऐसा कहनेमें भी स्पष्ट ही अर्जुनका मोह जाग्रत् करनेका भाव मालूम देता है । यदि भगवान्‌ उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति’ की जगह उवाच पार्थ पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान्समानिति’ कह देते तो शायद अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् न होकर युद्ध करनेका उत्साह ही विशेष बढ़ता; क्योंकि धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः’ (१ । २३)‒यह अर्जुनने पहले ही कहा था ! पाण्डव और दुर्योधनादि‒दोनों ही उस कुरुवंशके थे; अतः कुरु शब्दसे अर्जुनका मोह जाग्रत् होना स्वाभाविक ही था । पहले युद्धकी भावनासे जिनको अर्जुन धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः’ कह रहे थे, उनको ही अब वे स्वजन कहने लगे‒‘दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण’ (१ । २८) । युद्धमें स्वजनोंके संहारकी आशंका है । इस मोहके कारण अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं । फिर भी भगवान्‌की शरण होकर श्रेय (कल्याण)-की बात पूछते हैं (२ । ७) । उत्तरमें भगवान्‌ दिव्य गीतोपदेश देते हैं । इससे पता चलता है कि अर्जुन गीता सुननेके लिये स्वयं उन्मुख नहीं हुए, प्रत्युत भगवान्‌के द्वारा उन्मुख किये गये । अतः यह भगवद्‌गीता’ है, ‘अर्जुनगीता’ या कृष्णार्जुनगीतानहीं । इसको भगवद्‌गीताकहनेका तात्पर्य यही है कि इसमें श्रीकृष्णार्जुन-संवाद होते हुए भी अर्जुन भगवत्प्रेरित होकर ही बोल रहे हैं अर्थात् इसमें केवल भगवान्‌के वचन हैं ।



[*] श्रीमद्भागवतमहापुराणकी अन्वितार्थप्रकाशिकाटीकाके लेखक पं श्रीगंगासहायजी शर्माने भी श्रीमद्भागवतके श्‍लोकोंकी गणनाके लिये इसी अक्षर-गणनाकी (सम्पूर्ण अक्षरोंमें बत्तीसका भाग देनेवाली) पद्धतिको अपनाया है और प्रत्येक अध्यायके अन्तमें उसके श्‍लोकोंकी गणनाको श्‍लोकबद्ध करके लिखा है । यह बात दूसरी है कि उनकी गणनाके अनुसार श्रीमद्भागवतके अठारह हजार श्‍लोकोंमेंसे केवल डेढ़ श्‍लोक ही कम हैं ।

इसी अक्षर-गणनाके आधारपर किसी ग्रन्थके लेखकको पारिश्रमिक देनेकी परम्परा भी प्राचीनकालसे है ।