Listen प्राचीनकालसे ऐसी परम्परा है कि बत्तीस अक्षरोंका एक श्लोक
मानकर किसी भी पुराण आदि ग्रन्थके श्लोकोंका परिमाण निर्धारित किया जाता है [*] इसके अनुसार अगर गीताके श्लोकोंके सम्पूर्ण अक्षरोंका परिमाण
निकाला जाय, तो ७२० २६/३२ श्लोक होते हैं । अगर इनके साथ ‘उवाच’ के तीन सौ तिरासी अक्षर जोड़ दिये जायँ,
तो ७३२ २५/३२ श्लोक होते हैं; और यदि इनके (श्लोकाक्षरोंके) साथ केवल ‘पुष्पिका’
के आठ सौ तिहत्तर अक्षर जोड़ दिये जाँय,
तो ७४८ ३/३२ श्लोक होते हैं । अगर श्लोकोंके सम्पूर्ण अक्षरोंके साथ ‘उवाच’, ‘पुष्पिका’ और ‘अथ प्रथमोऽध्यायः’
आदिके कुल १३९३ (एक हजार तीन सौ तिरानवे) अक्षर और जोड़ें,
तो ७६४ ११/३२ श्लोक होते हैं । इस तरह किसी भी प्रकारसे महाभारत-कथित
गीताके परिमाणकी संगति नहीं बैठती । फिर भी परिमाण-सूचक श्लोक उपलब्ध होनेके कारण
परिमाणकी संगति बैठाना आवश्यक समझकर एक संतके द्वारा प्राप्त संकेतके अनुसार चेष्टा
की गयी है । विद्वानोंसे निवेदन है कि वे इसपर गम्भीरतासे विचार करके अपनी सम्मति देनेकी
कृपा करें । श्रीमद्भगवद्गीता श्रीमद्भगवद्गीताके प्रथम अध्यायको देखनेसे पता चलता है कि
अर्जुन युद्धके लिये पूर्णरूपसे तैयार हैं । वे स्वयं रथी बने हैं और सारथि बने भगवान्को
दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेकी आज्ञा देते हैं‒‘सेनयोरुभयोर्मध्ये
रथं स्थापय मेऽच्युत’ (१ ।
२१) । सारथि बने भगवान् भी रथको
दोनों सेनाओंके बीचमें, पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके रथोंके ठीक सामने एक विशेष कलाके
साथ खड़ा करते हैं । भगवान्की यह कला युद्धोन्मुख अर्जुनको कल्याणके उन्मुख करनेके
लिये मानो शक्तिपात थी (जिसकी सिद्धि अठारहवें अध्यायके तिहत्तरवें श्लोकमें हो गयी)
। भगवान्को जीवोंके कल्याणके लिये अर्जुनको निमित्त बनाकर गीताका महान् उपदेश देना
था और इसके लिये अर्जुनको वैसा ही पात्र बनाना था । अतः युद्धस्थलमें पितामह भीष्म
और आचार्य द्रोणको अपने सामने विपक्षमें देखकर अर्जुनका छिपा मोह जाग गया । इतना ही
नहीं,
भगवान्ने स्वयं कहा भी कि हे पार्थ ! युद्धके लिये एकत्र हुए
इन कुरुवंशियोंको देख‒‘उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति’ (१ ।
२५) । यहाँ भगवान्ने ‘धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देख’
यह न कह करके कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहा है । ऐसा कहनेमें
भी स्पष्ट ही अर्जुनका मोह जाग्रत् करनेका भाव मालूम देता है । यदि भगवान् ‘उवाच
पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति’ की जगह ‘उवाच
पार्थ पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान्समानिति’ कह देते तो शायद अर्जुनका कौटुम्बिक मोह जाग्रत् न होकर युद्ध
करनेका उत्साह ही विशेष बढ़ता; क्योंकि ‘धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः’
(१ ।
२३)‒यह अर्जुनने पहले ही कहा था
! पाण्डव और दुर्योधनादि‒दोनों ही उस कुरुवंशके थे; अतः ‘कुरु’
शब्दसे अर्जुनका मोह जाग्रत् होना स्वाभाविक ही था । पहले युद्धकी
भावनासे जिनको अर्जुन ‘धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः’
कह रहे थे, उनको ही अब वे स्वजन कहने लगे‒‘दृष्ट्वेमं
स्वजनं कृष्ण’ (१ । २८) । युद्धमें स्वजनोंके संहारकी आशंका है । इस मोहके कारण अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़
हो जाते हैं । फिर भी भगवान्की शरण होकर श्रेय (कल्याण)-की बात पूछते हैं (२ । ७)
। उत्तरमें भगवान् दिव्य गीतोपदेश देते हैं । इससे पता चलता है कि अर्जुन गीता सुननेके
लिये स्वयं उन्मुख नहीं हुए, प्रत्युत भगवान्के द्वारा उन्मुख किये गये । अतः यह ‘भगवद्गीता’ है, ‘अर्जुनगीता’ या ‘कृष्णार्जुनगीता’ नहीं । इसको ‘भगवद्गीता’ कहनेका तात्पर्य यही है कि इसमें श्रीकृष्णार्जुन-संवाद होते
हुए भी अर्जुन भगवत्प्रेरित होकर ही बोल रहे हैं अर्थात् इसमें केवल भगवान्के वचन
हैं ।
[*] श्रीमद्भागवतमहापुराणकी ‘अन्वितार्थप्रकाशिका’ टीकाके लेखक पं॰ श्रीगंगासहायजी शर्माने भी श्रीमद्भागवतके श्लोकोंकी गणनाके
लिये इसी अक्षर-गणनाकी (सम्पूर्ण अक्षरोंमें बत्तीसका भाग देनेवाली) पद्धतिको अपनाया
है और प्रत्येक अध्यायके अन्तमें उसके श्लोकोंकी गणनाको श्लोकबद्ध करके लिखा है ।
यह बात दूसरी है कि उनकी गणनाके अनुसार श्रीमद्भागवतके अठारह हजार श्लोकोंमेंसे केवल
डेढ़ श्लोक ही कम हैं । इसी अक्षर-गणनाके आधारपर किसी ग्रन्थके लेखकको पारिश्रमिक देनेकी परम्परा भी प्राचीनकालसे
है ।
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