Listen उवाच भी श्लोक अब गीता-परिमाणकी संगतिपर विचार किया जाता है । महाभारतके वक्ता
महर्षि वैशम्पायन हैं और श्रोता महाराज जनमेजय हैं । महर्षि वैशम्पायनने संजय और धृतराष्ट्रके
संवादको ध्यानमें रखते हुए ही गीताके परिमाणका कथन किया है । गीतामें ‘श्रीभगवानुवाच’
अट्ठाईस बार, ‘अर्जुन उवाच’
इक्कीस बार, ‘संजय उवाच’ नौ बार और ‘धृतराष्ट्र उवाच’
एक बार आया है । ‘श्रीभगवानुवाच’
और भगवत्-शरणागतिके बाद भगवत्प्रेरित ‘अर्जुन
उवाच’ को श्लोकात्मक मान लेनेपर गीताका परिमाण (७४५ श्लोक) सिद्ध हो जाता है । पिंगलाचार्य-रचित ‘पिंगलच्छ्न्दः सूत्रम्’
ग्रन्थके अनुसार एक अक्षरका और एक पदका भी छ्न्द होता है । एक
गाथाछन्द होता है, जिसमें अक्षरों और मात्राओंका भी नियम नहीं है । ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ में भी ‘उवाच’ को पूरा श्लोक माना गया है । इस दृष्टिसे गीता-परिमाणमें भी ‘उवाच’ को पूरा श्लोक माननेमें आपत्ति नहीं होनी चाहिये । हाँ, कुछ स्थानोंपर शंका हो
सकती है,
जिसका समाधान आगे किया जा रहा है । गीता-परिमाणके अनुसार भगवान्के छः सौ बीस श्लोक हैं,
जब कि गीताकी प्रचलित प्रतिके अनुसार पाँच सौ चौहत्तर श्लोक
ही होते हैं । अतः अब शेष छियालीस श्लोकोंपर विचार करना है । सम्पूर्ण गीताको देखनेसे पता चलता है कि भगवान्के हृदयमें अट्ठाईस
बार बोलनेका भाव जाग्रत् हुआ है । इन अट्ठाईस उवाचोंको श्लोक-गणनामें मान लिया जाना
चाहिये । ये ‘श्रीभगवानु-उवाच’ होनेसे मन्त्रस्वरूप हैं । इन भावमय भगवत्-श्लोकोंके मन्त्र-द्रष्टा संजय हैं
। इसी प्रकार भगवत्-शरणागतिके बाद तत्त्व-जिज्ञासुके रूपमें भगवत्प्रेरित अर्जुन दूसरे अध्यायके
चौवनवें श्लोकसे लेकर अठारहवें अध्यायके पहले श्लोकतक सत्रह बार बोले हैं । अतः पैंतालीस
(२८+१७=४५) उवाच अपौरुषेय मन्त्रवत् हैं । इन पैंतालीस उवाचोंको गीताकी प्रचलित प्रतिके
अनुसार भगवान्के कहे हुए पाँच सौ चौहत्तर श्लोकोंके साथ जोड़ देनेपर छः सौ उन्नीस
श्लोक भगवान्के हो जाते हैं । गीताकी प्रचलित प्रतिमें अन्तिम ‘अर्जुन
उवाच’ (१८ ।
१) के बाद अठारहवें अध्यायका
तिहत्तरवाँ श्लोक भी अर्जुनका है; किंतु गीतापरिमाणमें ‘अर्जुन उवाच’-सहित एक श्लोक मानकर उसे भगवान्के श्लोकोंमें ही सम्मिलित
किया गया है । इसके कारणोंका उल्लेख आगे किया जायगा । भगवत्प्रेरित अर्जुन
भगवान्का अथवा किसी जीवन्मुक्त महापुरुष, अधिकारी
कारक पुरुषका भाव जब किसी जीवके कल्याणका हो जाता है, तब
उसका उसी क्षण कल्याण निश्चित समझ लेना चाहिये,
जब कि उसे इसका उसी क्षण अनुभव नहीं होता । इसका
पता तो उसे बादमें चलता है । कारण कि जब उसमें रहनेवाली कमियोंको भगवान् अथवा महापुरुष
उस जीवके द्वारा शंकाओंके रूपमें प्रकट कराकर दूर कर देते हैं, तब
उसको अपने कल्याण (भगवान्से साधर्म्य)-का पता चलता है ।
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