Listen अर्जुनने जब एक अक्षौहिणी नारायणी सेनाको छोड़कर केवल निःशस्त्र
भगवान्को ही स्वीकार किया[*], उसी समय भगवान्के हृदयमें अर्जुनके कल्याणका भाव जाग्रत्
हो गया । कारण कि जब साधक वैभवका त्याग करके केवल भगवान्को
स्वीकार कर लेता है, तब उसके कल्याणका उत्तरदायित्व भगवान्पर आ जाता
है । भगवान्का भाव अर्जुनके कल्याणका
हो जानेसे अर्जुनका कल्याण तो निश्चित हो ही गया, पर उनमें रहनेवाली कमियोंको दूर करनेके लिये भगवान् उनसे शंकाएँ
करवाते हैं और उनका समाधान करके उन्हें वैसे ही नष्ट कर देते हैं,
जैसे आग ईंधनको । गीताको देखनेसे पता चलता है कि भगवत्-शरणागतिके बाद भगवत्प्रेरित
अर्जुन सत्रह बार बोलते हैं । शरणागतिके बाद अर्जुन सबसे पहले दूसरे अध्यायके चौवनवें
श्लोकमें स्थितप्रज्ञके लक्षण आदिकी बात पूछते हैं । यहाँ भगवत्प्रेरित अर्जुन ही
बोल रहे हैं । अगर अर्जुन भगवत्प्रेरित न होते तो उनकी शंकाएँ युद्धके विषयमें ही होतीं
। वे ऐसी शंकाएँ ही करते कि युद्ध करना चाहिये या नहीं अथवा युद्ध कैसे करें आदि;
क्योंकि वे युद्धका उद्देश्य लेकर ही युद्धभूमिमें आये थे ।
परन्तु यहाँ अर्जुन ऊँचे-से-ऊँचे अध्यात्मतत्त्वकी बात (स्थितप्रज्ञके विषयमें) पूछ
रहे हैं । इससे सिद्ध होता है कि अध्यात्म-विषयक वे शंकाएँ, जो अर्जुनके अन्तःकरणमें
थीं,
भगवान्की प्रेरणासे जाग उठीं । उन्हें ही भगवत्प्रेरित अर्जुन
पूछे रहे हैं । भगवान्की शरणागति स्वीकार करनेके बाद भगवत्प्रेरित अर्जुनद्वारा
लोकोपकारके लिये की हुई शंकाओंके आरम्भमें ‘अर्जुन उवाच’-रूप श्लोक महर्षि वेदव्यासके द्वारा लिखे गये हैं और इन श्लोकोंको
उन्होंने गीता-परिमाणमें भगवान्के ही श्लोक माने हैं‒ऐसा प्रतीत होता है । महर्षि
वेदव्यासजी अधिकार लेकर आये हुए कारक महापुरुष हैं । उनके कहे हुए श्लोकोंको इधर-उधर
करनेका किसको अधिकार है ? उनके द्वारा किये गये वेदोंके चार भाग आज भी चार ही माने जाते
हैं । गीतामें भगवान्के लगातार बोलते रहनेपर भी भगवान्के उपदेशको स्पष्टरूपसे समझानेके
लिये वेदव्यासजीने उसे भिन्न-भिन्न अध्यायोंके रूपमें विभक्त करके चौथे, छठे, सातवें,
नवें, दसवें, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें अध्यायके आरम्भमें पुनः ‘श्रीभगवानुवाच’-रूप श्लोक देकर उनको भगवान्के श्लोकोंमें सम्मिलित किया है
। ऐसे ही भगवत्प्रेरित अर्जुनद्वारा की हुई शंकाओंके श्लोकोंके आरम्भमें ‘अर्जुन
उवाच’-रूप श्लोकोंको भी भगवान्के ही श्लोकोंमें सम्मिलित किया है
। परन्तु उन श्लोकोंमें शंकाएँ अर्जुनकी अपनी होनेसे उन श्लोकोंको अर्जुनके श्लोकोंके
साथ ही परिमाणमें सम्मिलित किया गया है । शिष्य होते ही मनुष्य गुरुके साथ अभिन्न हो जाता है‒‘साह
ही को गोतु गोतु होत है गुलामको’ (कवितावली, उत्तर॰ १०७) । परन्तु जबतक शिष्यमें शंकाएँ रहती हैं, तबतक उसका गुरुसे अलगाव रहता है । शिष्यकी शंकाएँ व्यक्तिगत
होनेसे ही उसका गुरुके साथ शंका-समाधानरूप संवाद होता है अर्थात् गुरुके साथ अभिन्नता
होते हुए भी जहाँ गुरु-शिष्यका संवाद होता है, वहाँ गुरु और शिष्यमें भेद रहता है । ऐसे ही शरणागत होनेके बाद
अर्जुन भगवान्के साथ अभिन्न हो जाते हैं, परन्तु जबतक उनमें शंकाएँ रहती हैं,
तबतक उनका भगवान्से अलगाव रहता है । कारण कि अगर दूसरे अध्यायके
चौवनवें श्लोकसे लेकर अठारहवें अध्यायके पहले श्लोकतक आये ‘अर्जुन
उवाच’ के बाद कहे हुए श्लोक अर्जुनकी
व्यक्तिगत शंकाओंके द्योतक नहीं होंगे तो ‘श्रीकृष्णार्जुनसंवाद’ ही सिद्ध नहीं होगा । अतः ‘अर्जुन उवाच’
तो भगवत्प्रेरित ही है और शंकामात्र अर्जुनकी है । आगे चलकर
जब उनकी शंकाएँ सर्वथा मिट जाती है, तब वे भगवान्के साथ सर्वथा अभिन्न अर्थात् भगवत्स्वरूप हो
जाते हैं (१८ । ७३) ।
[*] एवमुक्तस्तु कृष्णेन कुन्तीपुत्रो धनंजयः । अयुध्यमानं
संग्रामे वरयामास केशवम् ॥ (महाभारत, उद्योग॰ ७ । २१)
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