Listen लोकसंग्राहक श्रीभगवान् अठारहवें अध्यायके बहत्तरवें श्लोकमें भगवान् स्वयं ही प्रश्न
करते हैं और तिहत्तरवें श्लोकमें लोकसंग्रहके लिये अर्जुनके माध्यमसे स्वयं ही उत्तर
देते हैं । भगवान् और संत-महात्माओंकी वाणीमें कई जगह ऐसा पाया जाता है
कि वे स्वयं ही साधक बनकर प्रश्न करते हैं और गुरु बनकर उत्तर देते हैं । जैसे,
‘अनुगीता’ (महाभारत)-में स्वयं भगवान्ने अर्जुनके प्रति यह रहस्य प्रकट
किया है‒ अहं
गुरुर्महाबाहो मनः शिष्यं च विद्धि मे । त्वत्प्रीत्या
गुह्यमेतच्च कथितं ते धनंजय
॥ (महा॰ आश्वमेधिक॰ ५१ । ४६) ‘हे महाबाहो ! मैं ही गुरु हूँ और मेरे मनको ही शिष्य समझो । हे धनंजय ! तुम्हारे
स्नेहवश मैंने इस रहस्यका वर्णन किया है ।’ श्रीशंकराचार्यजी महाराजकी वाणीमें भी ऐसा आता है कि वे स्वयं
ही शिष्य बनकर प्रश्न करते हैं और स्वयं ही गुरु बनकर उत्तर देते हैं‒ अपारसंसारसमुद्रमध्ये
सम्मज्जतो मे शरणं किमस्ति । गुरो
कृपालो कृपया वदैतद्विश्वेशपादाम्बुजदीर्घनौका ॥ (प्रश्नोत्तरी १) ‘हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार
संसाररूप समुद्रमें मुझ डूबते हुएका आश्रय क्या है ?
(गुरुका उत्तर मिलता है‒) विश्वपति परमात्माके
चरणकमलरूप जहाज ।’ इसी प्रकार अठारहवें अध्यायके बहत्तरवें
श्लोकमें भी अर्जुनका मोह नष्ट हुआ या नहीं‒यह जाननेके लिये
भगवान्का प्रश्न नहीं है । कारण कि भगवान् सर्वज्ञ हैं । वे नाटकके सूत्रधारकी तरह
संसाररूप नाटकको पूरा जानते हैं । वे जानते हैं कि अर्जुनका मोह नष्ट हो गया है । इसीलिये
वे अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्लोकमें अपने उपदेशका उपसंहार कर देते हैं और फिर गीता-श्रवणके
अनधिकारी और अधिकारीका वर्णन करके गीताका माहात्म्य बता देते हैं । इसका अभिप्राय यह
हुआ कि भगवान्ने पहलेसे ही यह जान लिया है कि अर्जुनका मोह अब सर्वथा नष्ट हो गया
है । तभी तो वे अपने उपदेशका उपसंहार कर देते हैं, जब कि अर्जुनने अभीतक अपना मोह नष्ट होना स्वीकार नहीं किया
है । अन्य परीक्षक तो ‘परीक्षार्थी क्या जानता है’‒इसको जाननेके लिये ही उसकी परीक्षा लेते हैं,
पर भगवान्की परीक्षा जीव (भक्त)-को उसकी वास्तविक स्थिति जनानेके
लिये होती है अर्थात् वे दिखाते हैं कि तू देख ले, तेरी स्थिति कहाँतक है । भगवान् तो सर्वज्ञ होनेसे सबको जानते
ही हैं । इसका प्रमाण गीतामें ही मिल जाता है । जैसे,
ग्यारहवें अध्यायके पहले श्लोकमें ‘मोहोऽयं विगतो मम’ कहकर अर्जुन अपने मोहका चला जाना स्वीकार करते हैं;
परन्तु भगवान् सर्वज्ञ होनेसे जानते हैं कि अभी अर्जुनका मोह
नष्ट नहीं हुआ है । अतः अर्जुनको जनानेके लिये वे ग्यारहवें अध्यायके ही उनचासवें श्लोकमें
कहते हैं‒‘मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावः’
अर्थात् मोहके सर्वथा चले जानेपर व्याकुलता और विमूढ़भाव (मोह)
पैदा ही नहीं होते; परन्तु भैया अर्जुन ! तुझे व्याकुलता और विमूढ़भाव‒दोनों ही
हो रहे हैं; अतः तू देख ले कि अभी तेरा मोह सर्वथा नष्ट नहीं हुआ है ।
आगे चलकर (१८ । ६६के बाद) भगवान् अर्जुनकी स्वीकृतिके बिना
भी यह जान जाते हैं कि अब उनका मोह सर्वथा नष्ट हो गया है और वे मेरे साधर्म्यको प्राप्त
हो गये हैं । परन्तु लोकसंग्रहकी दृष्टिसे भगवान् बहत्तरवें श्लोकमें प्रश्न करते
है और तिहत्तरवें श्लोकमें अर्जुनके माध्यमसे स्वयं ही उसका उत्तर देते हैं,
जिससे लोगोंको यह मालूम हो जाय कि गीताको
एकाग्रतापूर्वक सुननेमात्रसे मोहका सर्वथा नाश हो जाता है और तत्त्वकी प्राप्ति हो
जाती है । अतः भगवत्-साधर्म्य-प्राप्त (भगवत्स्वरूप) अर्जुनका यह (१८ । ७३)
श्लोक भगवान्का ही मानना चाहिये । तात्पर्य है कि भगवान् लोकसंग्रहके लिये ही अर्जुनसे
यह श्लोक कहलवाते हैं । |