Listen भगवत्स्वरूप अर्जुन जिस प्रकार भगवत्-शरणागतिके बाद अर्जुनके ‘भगवत्प्रेरित’ होनेसे श्लोकरूप ‘अर्जुन उवाच’
भगवान्के ही श्लोक माने गये हैं,
उसी प्रकार मोहनाशके बाद अर्जुनके ‘भगवत्स्वरूप’ होनेसे अठारहवें अध्यायका तिहत्तरवाँ श्लोक भी भगवान्का ही
माना गया है । अठारहवे अध्यायके तिहत्तरवें श्लोकको भगवान्का माननेपर यह
शंका हो सकती है कि भगवान् स्वयं ही ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा
त्वत्प्रसादात्.......’ आदि पदोंको अपने प्रति कैसे कह सकते हैं ? ये शब्द तो
साधक (अर्जुन)-के ही होने चाहिये । इसका समाधान यह है कि मोह सर्वथा नष्ट होनेसे अर्जुनकी
भगवान्के साथ अभिन्नता हो गयी । अर्जुनका अपना कुछ नहीं रहा,
वे सर्वथा भगवान्के हो गये । उनके द्वारा होनेवाली सभी क्रियाएँ
भगवान्की ही हुईं । अतः जीव-भावसे मुक्त भगवत्-साधर्म्य-प्राप्त अर्जुनका यह श्लोक
तात्त्विक दृष्टिसे भगवान्का ही कहा हुआ माना जा सकता है । कारण कि मोह सर्वथा नष्ट
हो जानेपर भक्त और भगवान्में कोई भेद नहीं रहता‒‘तस्मिंस्तज्जने
भेदाभावात्’ (नारदभक्तिसूत्र ४१) । स्वयं भगवान् कहते हैं‒‘ज्ञानी
त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७ । १८) ‘ज्ञानी (प्रेमी) भक्त तो मेरा स्वरूप ही है‒ऐसा मेरा मत है ।’
और ‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता
१४ । २) ‘भक्त मेरे साधर्म्यको प्राप्त हुए हैं ।’ भगवत्-साधर्म्यको
प्राप्त हुए भक्तके वचनको भगवान्का ही वचन मानना चाहिये । जब गुरुका शिष्यमें शक्तिपात होता है,
तब शिष्यमें गुरुका अवतार हो जाता है अर्थात् शिष्य गुरुका ही
स्वरूप हो जाता है । ‘अद्वैतामृतवल्लरी’ नामक वेदान्तग्रन्थमें चार प्रकारसे शक्तिपात होनेकी बात आयी
है‒ (१) स्पर्शसे‒जैसे‒मुर्गी अपने अंडेपर बैठी रहती है और इस प्रकार उसके स्पर्श
(सम्बन्ध)-से अंडा पक जाता है । (२) शब्दसे‒जैसे‒कुररी आकाशमें शब्द करती हुई घूमती रहती है और इस प्रकार
उसके शब्दसे अंडा पक जाता है । (३) दृष्टिसे‒जैसे‒मछली थोड़ी-थोड़ी देरमें अपने अंडेको देखती रहती है, जिससे
अंडा पक जाता हैं । (४) स्मरणसे‒जैसे‒कछुई
रेतीके भीतर अंडा देती है, पर खुद पानीके भीतर रहती हुई उस अंडेका निरन्तर स्मरण करती रहती
है,
जिससे अंडा पक जाता है ।[*] भगवान्की तो स्फुरणामात्रसे ही जीवका कल्याण हो सकता है,
पर गीताको देखनेसे पता चलता है कि भगवान्का अर्जुनमें उपर्युक्त
चारों ही प्रकारसे शक्तिपात हुआ है । भगवान् और अर्जुनका सम्बन्ध ही स्पर्शसे होनेवाला
शक्तिपात है । दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुनने भगवान्से और अठारहवें अध्यायके
तिहत्तरवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे विशेष सम्बन्ध जोड़ा है । दूसरी बात,
गीता ‘श्रीकृष्णार्जुनसंवाद’ है और जहाँ संवाद होता है, वहाँ सम्बन्ध तो रहता ही है । भगवान्ने अर्जुनकी शंकाओंका समाधान
किया‒यह शब्दसे होनेवाला शक्तिपात है । कृपा दृष्टिके द्वारा प्रकट होती है । भगवान्
अर्जुनको कृपापूर्वक देखते हैं‒यह दृष्टिसे होनेवाला शक्तिपात है । भगवान् अर्जुनका
कल्याण करना चाहते हैं‒यह मनसे होनेवाला शक्तिपात है ।
[*] उदयपुरमें पिचोला नामक एक प्रसिद्ध सरोवर है । एक बार एक संत
वहाँ गये और वहाँके नाविकोंसे उन्होंने कछुईके याद करनेमात्रसे अंडोंका पोषण होनेकी
सत्यताका पता लगाया । नाविकोंने इस बातकी पुष्टि की । वहाँ रेतीमें एक कछुईके अंडे
दबे पड़े थे, जिसका पता नाविकोंको था । नाविकोंने पानीमें अपना जाल फैलाया । जब उस जालमें वह
कछुई फँस गयी, तब उन संतने जाकर देखा कि उसके अंडे गल गये थे । इससे पता चलता है कि जालमें फँसनेसे
जब घबराहटमें कछुईका स्मरण छूट गया, तब उसके अंडे गल गये । |