Listen सभी जीव भगवान्के अंश होनेके नाते मानो उनके अंडे हैं । यदि
जीव सर्वथा भगवान्के शरण हो जाय तो उसका मोहरूप आवरण नष्ट हो जाता है और उसे भगवत्-साधर्म्यकी
स्मृति प्राप्त हो जाती है । अर्जुनका मोहरूप आवरण नष्ट हो गया है‒‘नष्टो मोहः’ और उनको स्मृति प्राप्त हो गयी है‒‘स्मृतिर्लब्धा’; अतः अब उनमें और भगवान्में भेद नहीं रहा है । दूसरी बात, यदि सुननेवाला वक्तासे अभिन्न नहीं हुआ तो वास्तवमें उसने सुना
ही नहीं । विद्यार्थी पण्डितसे पढ़कर खुद पण्डित नहीं बना तो वास्तवमें उसने पढ़ा ही
नहीं । ऐसे ही गुरुके पास जाकर भी यदि शिष्य संसारका गुरु अर्थात् तत्त्वज्ञ,
जीवन्मुक्त नहीं बना तो वास्तवमें उसने गुरुका उपदेश सुना ही
नहीं अथवा उसको सच्चा गुरु मिला ही नहीं[*] । अब यह शंका रह जाती है कि भगवान् ‘नष्टो
मोहः....’ आदि पद स्वयंके
प्रति कैसे बोल गये ? इसके समाधानमें यह कहना है कि भगवान्को लोगोंमें यह बताना
था कि एकाग्रतापूर्वक गीताके श्रवण, पठन, मनन आदिसे साधककी स्वतः ऐसी स्थिति हो जाती है;
परन्तु ऐसा होनेमें वह अपने साधन, श्रवण, पठन, मनन आदिको नहीं,
प्रत्युत भगवत्कृपाको ही हेतु माने । अतः साधनकी ऊँची अवस्थामें भी साधक अभिमानवश कहीं अटक न जाय,
इसके लिये अर्जुनके माध्यमसे मोहनाशका हेतु भगवत्कृपाको ही माना
गया है । जबतक मनुष्य अपने उद्योगसे अपना कल्याण मानता है और जबतक उसको
बोध नहीं होता, तबतक उसमें अहंभाव पाया जाता है । अहंभावका सर्वथा नाश होनेपर उसको भगवान्से अपनी
अभिन्नताका अनुभव हो जाता है । उसको पता लग जाता है कि वास्तवमें मैंने कुछ किया ही
नहीं,
सब काम भगवत्कृपासे ही हुआ है । जब भगवान्ने अर्जुनसे प्रश्न
किया कि ‘तूने एकाग्रतासे गीता सुनी या नहीं ?’
तब अर्जुनने उत्तर दिया‒‘नष्टो मोहः
स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।’ तात्पर्य यह है कि अर्जुनने अपने मोहका
नाश सुननेसे नहीं, प्रत्युत केवल भगवत्कृपासे ही माना । इससे स्पष्ट है कि उनका
अहंभाव सर्वथा मिट गया था; तभी तो उनकी दृष्टि केवल कृपाकी ओर थी । अतः भगवत्-साधर्म्य-प्राप्त
अर्जुनके ये वचन भगवान्के ही माने गये हैं । साधारण रूपसे विचार करें तो भी ‘नष्टो
मोहः....करिष्ये वचनं तव’ पद भगवत्-साधर्म्य-प्राप्त भगवत्स्वरूप महापुरुषके ही हो सकते
हैं,
न कि साधकके । साधनकी ऊँची-से-ऊँची अवस्थामें भी साधकमें अभिमान
और स्वार्थका कुछ-न-कुछ अंश रहता ही है, तभी तो वह साधक कहलाता है । अतः वह अपने लिये उपर्युक्त पदोंका
प्रयोग कैसे कर सकता है ? ये पद तो पूर्णावस्थामें ही कहे जा सकते हैं । एक शंका यह भी हो सकती है कि ‘अर्जुन
उवाच’ और उसके बादका यह (१८ । ७३) श्लोक‒दोनोंको मिलाकर एक ही श्लोक क्यों माना गया
है ?
‘उवाच’ को अलग श्लोक क्यों
नहीं माना गया है ? इसके समाधानमें एक बात तो यह है कि यहाँ ‘उवाच’ भगवान्के वचनोंके ही अन्तर्गत है,
उनसे अलग नहीं । दूसरी बात यह है कि यहाँ ‘उवाच’ को अलग माननेपर पुनरुक्ति होगी; क्योंकि अठारहवें अध्यायके दूसरे श्लोकसे बहत्तरवें श्लोकतक
भगवान् ही तो बोल रहे हैं । अतः सम्पूर्ण गीतामें यह पहली पुनरुक्ति बचानेके लिये
ही ऐसा किया गया है ।
[*] पारस केरा गुण किसा, पलटा नहीं लोहा । कै तो निज पारस नहीं, कै बीच रहा
बिछोहा ॥ पारसमें अरु संतमें, बहुत अंतरौ जान । वह लोहा कंचन
करै, वह करै आपु समान ॥ |