।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
    माघ शुक्ल प्रतिपदा , वि.सं.-२०७९, रविवार

गीताका परिमाण

और पूर्ण शरणागति



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शरणागतिसे पूर्व अर्जुन उवाच’

एक प्रश्‍न होता है कि गीता-परिमाणमें भवगत्-शरणागति (२ । ७) के बाद अठारह बार आये अर्जुन उवाच (सत्रह बार उवाचऔर एक बार अन्तिम ‘उवाच’-सहित श्‍लोक) को ही भगवान्‌के वचनोंके अन्तर्गत क्यों सम्मिलित किया गया ? और शरणागतिसे पहले (१ । २१ और १ । २८ श्‍लोकोंके बीच और २ । ३ श्‍लोकके बाद) आये तीन अर्जुन उवाच को क्यों छोड़ा गया ?

इसका उत्तर यह है कि भगवत्-शरणागतिसे पहले अर्जुन जो तीन बार बोले हैं, वे तीनों अर्जुन उवाच संजयके ही वचनोंके अन्तर्गत हैं । अतः उनको भगवान्‌के वचनोंमें सम्मिलित नहीं किया गया है । संजय राजा धृतराष्ट्रसे कह रहे हैं कि अर्जुन ऐसा-ऐसा बोले । पहले अध्यायके अर्जुन उवाच’ के आरम्भमें और अन्तमें आये हुए आह, ‘उक्त्वा’,अब्रवीत्’ आदि पदोंको देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्जुनके वचनोंको संजय ही अपने शब्दोंमें बोल रहे हैं; जैसे ‘पाण्डवः’ (१ । २०), ‘इदमाह महीपते’ (१ । २१), एवमुक्तो हृषीकेशः’ (१ । २४), कौन्तेयः’ (१ । २७), ‘इदमब्रवीत्’ (१ । २८), ‘एवमुक्त्वार्जुनः’ (१ । ४७) आदि पदोंको तथा दूसरे अध्यायके अर्जुन उवाच’ के बाद ‘एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप’ और न योत्स्य इति (२ । ९) ।

दूसरे अध्यायके चौथे श्‍लोकमें अर्जुन उवाच’ के आरम्भमें ऐसे पद नहीं मिलते कि आगे आनेवाले अर्जुनके वचन संजय ही बोल रहे हों । कारण कि पहले अध्यायमें अर्जुनने युद्ध न करनेके लिये भगवान्‌के सामने जो युक्तियाँ रखीं, उन सबका युक्तिसंगत उत्तर दिये बिना ही भगवान्‌ने एकाएक (२ । २-३में) अर्जुनको कायरतारूप दोषके लिये फटकारा और युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा दे दी । इस आज्ञाने अर्जुनके भाव उद्वेलित कर दिये । वे कायर बनकर युद्धसे विमुख नहीं हो रहे थे, प्रत्युत धर्मभीरु बनकर, धर्मके भयसे युद्धसे उपरत हो रहे थे । वे अपने मरनेसे नहीं, प्रत्युत स्वजनोंको मारनेके पापसे डरते थे । अतः ज्यों ही भगवान्‌ने दूसरे श्‍लोकमें ‘कुतस्त्वा कश्मलमिदम् आदि पदोंद्वारा अर्जुनको जोरसे फटकारा, त्यों ही अर्जुन भी अपने भावोंका ठीक समाधान न पाकर अकस्मात् उत्तेजित होकर बोल उठे‒‘कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन । इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन’ (२ । ४) हे मधुसूदन ! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे युद्ध कैसे करूँ ? क्योंकि हे अरिसूदन ! ये दोनों ही पूजनीय हैं ।’ यहाँ मधुसूदनऔर ‘अरिसूदनसम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप तो दैत्यों और शत्रुओंको मारनेवाले हैं, पर मेरे सामने तो युद्धमें पितामह भीष्म (दादाजी) और आचार्य द्रोण (विद्यागुरु) खड़े हैं । संसारमें मनुष्यके दो ही सम्बन्ध मुख्य हैं‒कौटुम्बिक सम्बन्ध और विद्या-सम्बन्ध । दोनों ही अर्जुनके सामने उपस्थित हैं । सम्बन्धमें बड़े होनेके नाते दोनों ही आदरणीय और पूजनीय हैं । भगवान्‌ उनके साथ युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं, जिससे उद्विग्‍न होकर अर्जुन एकाएक बोल उठते हैं; इसलिये संजयको ‘इदमाह’, उक्त्वा आदि पदोंसे संकेत करनेका अवसर ही नहीं मिला ।

यदि गहराईसे देखा जाय तो दूसरे अध्यायमें अर्जुनके बोलनेके बाद (२ । ९-१०में) जहाँ संजय बोलते हैं, वहाँ उन्होंने अपने वचनोंको दो भागोंमें विभक्त किया है‒(१) ‘एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप पदोंसे संजय दूसरे अध्यायके चौथेसे आठवें श्‍लोकतक कहे हुए अर्जुनके वचनोंकी ओर लक्ष्य कराते हैं और (२) न योत्स्ये’ पदोंसे संजय अर्जुनके वचनको स्पष्टरूपसे अपने वचनोंमें कहते हैं ।