Listen एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि यदि गीतामें आये सभी भगवत्-वचनोंको
भगवान्के श्लोकोंकी गणनामें लेना आवश्यक है, तो फिर पहले अध्यायके पचीसवें श्लोकमें आये ‘पार्थ
पश्यैतान् समवेतान् कुरून्’‒इस वचनको गीता-परिमाणमें भगवान्के श्लोकोंमें क्यों नहीं लिया गया ?
इसके उत्तरमें पहली बात तो यह है कि पहले अध्यायका पचीसवाँ श्लोक
पूरा भगवान्द्वारा कथित नहीं है, प्रत्युत इस श्लोकके उत्तरार्धमें आये केवल ग्यारह अक्षर ही
भगवान्के कहे हुए हैं । अतः पूरा श्लोक न होनेसे इसको परिमाणमें सम्मिलित नहीं किया
जा सकता । दूसरी बात, महर्षि वेदव्यासजीने (‘श्रीभगवानुवाच’ पद न देकर) इसको भगवान्का स्वतन्त्र श्लोक नहीं माना है,
प्रत्युत इसको संजयके वचनोंमें ही माना है । अतः स्वतन्त्ररूपसे
भगवत्कथित श्लोक न होनेसे इसको भगवान्के श्लोकोंमें सम्मिलित नहीं किया गया है ।
तीसरी बात, भगवान् इस श्लोकमें अर्जुनके निर्देशानुसार (१ । २१‒२३) सारथिरूपसे बोल रहे हैं । अतः यह श्लोक स्वतन्त्ररूपसे
भगवद्वाणी न होनेसे भगवान्के श्लोकोंमें सम्मिलित नहीं किया जा सकता । ‘श्रीभगवानुवाच’
की पुनरुक्ति क्यों ? गीता-परिमाणमें यह एक आवश्यक प्रश्न हो सकता है कि अध्यायोंके
आरम्भमें आये ‘श्रीभगवानुवाच’
को परिमाणकी गणनामें दूसरी बार पुनः सम्मिलित क्यों किया गया,
जबकि पहलेसे भगवान् ही तो बोलते आ रहे हैं ?
जैसे‒तीसरे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकसे भगवान् ही बोल रहे
हैं,
फिर भी चौथे अध्यायके आरम्भमें ‘श्रीभगवानुवाच’ को परिमाणकी गणनामें श्लोकरूपसे पुनः सम्मिलित किया गया है । इसका उत्तर यह है कि साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे
निकली वाणी गीताके संकलनकर्ता महर्षि वेदव्यासजी हैं और उन्होंने ही इसे श्लोकबद्ध
करके अठारह अध्यायोंमें विभक्त किया है । भगवान्के लगातार बोलते रहनेपर भी उन्होंने
चौथे,
छठे, सातवें, नवें, दसवें, तेरहवें, चौदहवें, पंद्रहवें और सोलहवें अध्यायके आरम्भमें ‘श्रीभगवानुवाच’-रूप श्लोक दिया है । अधिकारप्राप्त आप्तपुरुष होनेसे महर्षि
वेदव्यासजीके वचन सभीको सदा मान्य हैं । उन्होंने ही कृपा करके जैसे वेदोंको स्पष्टरूपसे
समझानेके लिये उसको अलग-अलग चार भागोंमें (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेदके रूपमें) विभक्त किया है, ऐसे
ही गीतामें भगवान्के दिये उपदेशका जैसा अनुभव किया, वैसा स्पष्टरूपसे समझानेके लिये
उसको अलग-अलग अठारह अध्यायोंमें विभक्त किया है । दूसरी बात यह है कि अध्यायके आरम्भमें कौन बोल रहा है,
यह बतानेके लिये ‘उवाच’ देना आवश्यक ही हो जाता है । अतः भगवान्के लगातार बोलते रहनेपर
भी अध्यायके आरम्भमें पुनः ‘श्रीभगवानुवाच’
देकर परिमाणमें उसको भगवान्का ही श्लोक माना है ।
तीसरी बात, अध्यायके अन्तमें पुष्पिकारूप ‘इति’
लगा देनेसे नये ग्रन्थके समान ही आगेका अध्याय आरम्भ होता है
। अतः अध्यायके आरम्भमें ‘श्रीभगवानुवाच’
पुनः देना आवश्यक होनेसे ही वेदव्यासजी महाराजने इसको पुनरुक्ति
नहीं माना । महर्षि वेदव्यासजीके माने हुए नियमोंको इधर-उधर करनेका किसीको भी अधिकार
नहीं है । |