।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल तृतीया , वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीताका परिमाण

और पूर्ण शरणागति



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एक प्रश्‍न यह भी हो सकता है कि यदि गीतामें आये सभी भगवत्-वचनोंको भगवान्‌के श्‍लोकोंकी गणनामें लेना आवश्यक है, तो फिर पहले अध्यायके पचीसवें श्‍लोकमें आये पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरून्’‒इस वचनको गीता-परिमाणमें भगवान्‌के श्‍लोकोंमें क्यों नहीं लिया गया ? इसके उत्तरमें पहली बात तो यह है कि पहले अध्यायका पचीसवाँ श्‍लोक पूरा भगवान्‌द्वारा कथित नहीं है, प्रत्युत इस श्‍लोकके उत्तरार्धमें आये केवल ग्यारह अक्षर ही भगवान्‌के कहे हुए हैं । अतः पूरा श्‍लोक न होनेसे इसको परिमाणमें सम्मिलित नहीं किया जा सकता । दूसरी बात, महर्षि वेदव्यासजीने (श्रीभगवानुवाचपद न देकर) इसको भगवान्‌का स्वतन्त्र श्‍लोक नहीं माना है, प्रत्युत इसको संजयके वचनोंमें ही माना है । अतः स्वतन्त्ररूपसे भगवत्कथित श्‍लोक न होनेसे इसको भगवान्‌के श्‍लोकोंमें सम्मिलित नहीं किया गया है । तीसरी बात, भगवान्‌ इस श्‍लोकमें अर्जुनके निर्देशानुसार (१ । २१२३) सारथिरूपसे बोल रहे हैं । अतः यह श्‍लोक स्वतन्त्ररूपसे भगवद्‍वाणी न होनेसे भगवान्‌के श्‍लोकोंमें सम्मिलित नहीं किया जा सकता ।

श्रीभगवानुवाच’ की पुनरुक्ति क्यों ?

गीता-परिमाणमें यह एक आवश्यक प्रश्‍न हो सकता है कि अध्यायोंके आरम्भमें आये श्रीभगवानुवाच’ को परिमाणकी गणनामें दूसरी बार पुनः सम्मिलित क्यों किया गया, जबकि पहलेसे भगवान्‌ ही तो बोलते आ रहे हैं ? जैसे‒तीसरे अध्यायके सैंतीसवें श्‍लोकसे भगवान्‌ ही बोल रहे हैं, फिर भी चौथे अध्यायके आरम्भमें श्रीभगवानुवाच को परिमाणकी गणनामें श्‍लोकरूपसे पुनः सम्मिलित किया गया है ।

इसका उत्तर यह है कि साक्षात् भगवान्‌ श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकली वाणी गीताके संकलनकर्ता महर्षि वेदव्यासजी हैं और उन्होंने ही इसे श्‍लोकबद्ध करके अठारह अध्यायोंमें विभक्त किया है । भगवान्‌के लगातार बोलते रहनेपर भी उन्होंने चौथे, छठे, सातवें, नवें, दसवें, तेरहवें, चौदहवें, पंद्रहवें और सोलहवें अध्यायके आरम्भमें श्रीभगवानुवाच’-रूप श्‍लोक दिया है । अधिकारप्राप्‍त आप्‍तपुरुष होनेसे महर्षि वेदव्यासजीके वचन सभीको सदा मान्य हैं । उन्होंने ही कृपा करके जैसे वेदोंको स्पष्टरूपसे समझानेके लिये उसको अलग-अलग चार भागोंमें (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेदके रूपमें) विभक्त किया है, ऐसे ही गीतामें भगवान्‌के दिये उपदेशका जैसा अनुभव किया, वैसा स्पष्टरूपसे समझानेके लिये उसको अलग-अलग अठारह अध्यायोंमें विभक्त किया है ।

दूसरी बात यह है कि अध्यायके आरम्भमें कौन बोल रहा है, यह बतानेके लिये उवाचदेना आवश्यक ही हो जाता है । अतः भगवान्‌के लगातार बोलते रहनेपर भी अध्यायके आरम्भमें पुनः श्रीभगवानुवाच’ देकर परिमाणमें उसको भगवान्‌का ही श्‍लोक माना है ।

तीसरी बात, अध्यायके अन्तमें पुष्पिकारूप इति’ लगा देनेसे नये ग्रन्थके समान ही आगेका अध्याय आरम्भ होता है । अतः अध्यायके आरम्भमें श्रीभगवानुवाच’ पुनः देना आवश्यक होनेसे ही वेदव्यासजी महाराजने इसको पुनरुक्ति नहीं माना । महर्षि वेदव्यासजीके माने हुए नियमोंको इधर-उधर करनेका किसीको भी अधिकार नहीं है ।