।। श्रीहरिः ।।

    


  आजकी शुभ तिथि–
     फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

कल्याणके तीन सुगम मार्ग



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कर्मयोगका मार्ग

जब साधक अपने जीवनमें बुराईका त्याग कर देता है, तब कर्मयोगकी सिद्धि हो जाती है । बुराईका त्याग तीन बातोंसे होता है‒

(१) किसीका भी बुरा न करना

(२) किसीको भी बुरा न समझना और

(३) किसीका भी बुरा न चाहना ।

बुराईके त्याग किये बिना मनुष्य कर्तव्य-परायण नहीं हो सकता ।

मनुष्य किसीका भी बुरा तब करता है, जब वह स्वार्थवश खुद बुरा बनता है । खुदको बुरा बनाये बिना मनुष्य किसीका भी बुरा नहीं कर सकता । कारण कि जैसा कर्ता होता है, वैसे ही कर्म होते हैं‒यह सिद्धान्त है । कर्म कर्ताके अधीन होते हैं । इसलिये सबसे पहले मनुष्यको चाहिये कि वह अपनेको साधक स्वीकार करे । जब कर्ता साधक होगा तो फिर उसके द्वारा साधकके विपरीत कर्म कैसे होंगे ? साधकके द्वारा किसीका बुरा नहीं होता । इतना नहीं, वह अपने प्रति बुराई करनेवालेका भी बुरा नहीं करता, प्रत्युत उसपर दया करता है । बुराईके बदले बुराई करनेसे तो बुराईकी वृद्धि ही होगी, बुराईकी निवृत्ति कैसे होगी ? बुराईके बदले बुराई न करनेसे तथा भलाई करनेसे ही बुराईकी निवृत्ति हो सकती है ।

कोई भी मनुष्य सर्वथा बुरा नहीं होता और सभीके लिये बुरा नहीं होता । मनुष्य सर्वथा भला तो हो सकता है, पर सर्वथा बुरा नहीं हो सकता । कारण कि बुराई कृत्रिम, आगन्तुक, अस्वाभाविक है । बुराईकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इसलिये बुराईको न दुहरानेसे बुराई सर्वथा मिट जाती है । बुराईको न दुहराना साधकका खास काम है । बुराईको न दुहरानेसे मनुष्य बुरा नहीं रहता, प्रत्युत भला हो जाता है ।

मनुष्यको किसीको भी बुरा समझनेका अधिकार नहीं है । दूसरेमें जो बुराई दीखती है, वह उसके स्वरूपमें नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है । मनुष्यके स्वभावमें यह दोष रहता है कि वह अपनी बुराईको तो क्षमा कर देता है, पर दूसरेकी बुराईको देखकर उसके प्रति न्याय करता है । साधकका कर्तव्य है कि वह अपने प्रति न्याय करे और दूसरेके प्रति क्षमा करे । भगवान्‌का अंश होनेके नाते मनुष्यमात्र स्वरूपसे निर्दोष है‒

ईस्वर  अंस  जीव  अबिनासी ।

चेतन अमल  सहज सुखरासी ॥

(मानस, उत्तर ११७ । २)

इसलिये किसी भी मनुष्यमें बुराईकी स्थापना नहीं करनी चाहिये । आगन्तुक बुराईके आधारपर किसीको बुरा समझना अनुचित है । दूसरा चाहे बुरा हो या न हो, पर उसको बुरा समझनेसे अपनेमें बुराई आ ही जायगी । दूसरेको बुरा समझेंगे तो अपने भीतर बुरे संकल्प पैदा होंगे, क्रोध पैदा होगा, वैरभाव पैदा होगा, विषमता पैदा होगी, पक्षपात पैदा होगा । इनके पैदा होनेसे कर्म भी अशुद्ध होने लगेंगे । अतः बुराईकी स्थापना न तो अपनेमें करनी चाहिये और न दूसरोंमें ही करनी चाहिये । बुराईकी स्थापना करनेसे न अपना हित होता है, न दूसरेका । किसीको बुरा समझना अथवा किसीका बुरा चाहना बुराई करनेसे भी बड़ा दोष है ।

मनुष्य किसीका बुरा चाहता है तो उसका बुरा तो होता नहीं, पर अपना बुरा अवश्य हो जाता है । दूसरेका बुरा चाहनेवालेकी हानि ज्यादा होती है; क्योंकि बुरा चाहनेसे उसके भावमें बुराई आ जाती है । कर्मकी अपेक्षा भाव सूक्ष्म और व्यापक होता है । अतः दूसरेका बुरा चाहनेमें अपना ही बुरा निहित है । यह नियम है कि हम दूसरेके प्रति जो करेंगे, वही परिणाममें अपने प्रति हो जायगा । इसलिये साधकको किसीका भी बुरा चाहनेका, बुरा समझनेका अथवा बुरा करनेका अधिकार नहीं है । उसको समानरूपसे सबके हितका भाव रखते हुए सबकी सेवा करनेका ही अधिकार है । सेवा करनेसे ही वह कर्मयोगका अधिकारी होता है । दूसरेका बुरा करनेवाला, बुरा समझनेवाला अथवा बुरा चाहनेवाला दूसरेपर शासन तो कर सकता है, पर सेवा नहीं कर सकता । शासक सेवक नहीं हो सकता और सेवक शासक नहीं हो सकता । समाजकी उन्‍नति सेवकके द्वारा होती है, शासकके द्वारा नहीं ।