Listen भलाई करना तो परिश्रम-साध्य है, पर बुराई न करनेमें कोई
परिश्रम नहीं होता तथा कोई खर्चा भी नहीं होता । इसलिये बुराईका
त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र तथा समर्थ हैं । यहाँ एक शंका होती है कि जब
दूसरा व्यक्ति हमारे साथ बुराई कर रहा है तो फिर हम कैसे उसको बुरा न समझें, उसका
बुरा न चाहें ? इसका समाधान यह है कि दूसरा हमारा बुरा करता है तो यह बुराई उसमें
आयी हुई है, स्वाभाविक नहीं है । स्वरूपसे तो वह सर्वथा बुराई-रहित है । दूसरी
बात, हमारा बुरा होनेसे हमारे पुराने पाप कटते हैं और हम शुद्ध होते हैं । तीसरी
बात, गहरा विचार करनेसे पता लगता है कि दूसरा हमारे साथ बुराई तभी करता है, जब हम
निर्बल होते हैं । हम निर्बल तब होते हैं, जब प्राणोंमें मोह होनेके कारण हम
मृत्युसे डरते हैं और इस कारण अपने प्रति
होनेवाली बुराईको हम सहते हैं । अगर हमारेमें प्राणोंका मोह न रहे, जीनेकी
इच्छा और मरनेका भय न रहे तो कोई बलवान् व्यक्ति हमारेपर अत्याचार नहीं कर सकेगा
। यह सिद्धान्त है कि भौतिक बल कभी भी आध्यात्मिक बलपर
विजय प्राप्त नहीं कर सकता । नाशवान् वस्तु अविनाशीपर विजय कैसे कर सकती है ? अन्धकार प्रकाशपर विजय कैसे कर सकता है ?
जिसका मिलने और बिछुड़नेवाले शरीरमें ‘मैं’-पन और ‘मेरा’-पन नहीं है, उसको कोई अपने
अधीन नहीं कर सकता । उसपर कोई विजय नहीं कर सकता । विचार करना चाहिये कि जब शरीरका
नाश होनेपर भी हमारी सत्ताका नाश नहीं होता[*], तो फिर शरीरको रखनेकी इच्छा और मृत्युका भय करनेसे क्या
लाभ ? इसलिये साधकको अपना कर्तव्य जितना प्रिय होता है,
उतने अपने प्राण भी प्रिय नहीं होते । अपने कर्तव्यकी रक्षाके लिये वह
प्राणोंका भी त्याग कर देता है । ऐसे साधकको कोई बलवान्-से-बलवान् व्यक्ति भी
अपने अधीन करके कर्तव्यच्युत नहीं कर सकता । कर्मयोगी अपने कर्तव्यका पालन करते हुए दूसरेके अधिकारकी
रक्षा करता है । जो दूसरेका अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता है । जैसे,
माता-पिताकी सेवा करना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है । अपना अधिकार चाहनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर
सकता । इसलिये कर्मयोगका साधक अपने अधिकारका त्याग करता है । अपने अधिकारका त्याग करनेसे नया राग पैदा नहीं होता और दूसरेके
अधिकारकी रक्षा करनेसे पुराना राग मिट जाता है और साधक सुगमतापूर्वक रागरहित हो
जाता है । मनुष्य अपने अधिकारका त्याग तथा दूसरेके अधिकारकी रक्षा
करनेमें तो स्वतन्त्र है, पर अधिकार प्राप्त करनेमें स्वतन्त्र नहीं है । अधिकार
पानेकी लालसा मनुष्यको कर्तव्यच्युत करके उसको काम, क्रोध, लोभ आदि दोषोंसे युक्त
कर देती है, जिससे उसका पतन हो जाता है । इसलिये कर्मयोगका साधक दूसरेके अधिकारकी
रक्षा करता है । जब अपने कहलानेवाले शरीरपर ही हमारा अधिकार नहीं चलता, तो
फिर शरीर जिसका अंश है, उस संसारपर हमारा अधिकार कैसे चल सकता है ? परन्तु हमारेपर
शरीर और संसारका अधिकार अवश्य है । शरीरका अधिकार यह है
कि हम उसको आलसी, अकर्मण्य, प्रमादी, असंयमी न बनने दें और संसारका अधिकार यह है
कि हम शरीरके द्वारा संसारकी सेवा करें, किसीका भी अहित न करें, सबको सुख पहुँचायें
। समाजमें ज्यों-ज्यों अधिकार पानेकी लालसा बढ़ती
जाती हैं, त्यों-ही-त्यों लोग अपने कर्तव्यसे हटते जाते हैं, जिससे समाजमें संघर्ष
पैदा हो जाता है । अधिकार पानेकी इच्छासे गुलामी आ जाती है । अतः अपने अधिकारका
त्याग करना प्रत्येक साधकके लिये आवश्यक है । अपने अधिकारका त्याग करनेसे उदारता और असंगता‒दोनों आ जाती
हैं । उदारता आनेसे कर्मयोगकी तथा असंगता आनेसे ज्ञानयोगकी सिद्धि हो जाती है । वास्तवमें अधिकार देनेकी वस्तु है, लेनेकी वस्तु
नहीं । कोई जबर्दस्ती अधिकार
लेना भी चाहे तो नहीं ले सकता । बलवान्-से-बलवान् व्यक्ति भी दूसरोंका विनाश तो
कर सकता है, पर दूसरोंका अपने प्रति आदर, प्रेम, श्रद्धा, विश्वास उत्पन्न नहीं
करा सकता । यद्यपि मनुष्यका मूल्य संसारसे अधिक है, तथापि अधिकार पानेकी लालसासे
वह अपना मूल्य गिरा देता है । अधिकार पानेकी लालसाके मूलमें नाशवान् सुखकी लालसा
है । जब साधक सुखकी आसक्तिको मिटा देता है, तब अधिकार पानेकी लालसा भी मिट जाती है
और साधकका कर्मयोग सिद्ध हो जाता है ।
[*] न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते
हन्यमाने शरीरे ॥ (गीता
२ । २०) |