।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

एक नयी बात



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यहाँ एक शंका हो सकती है कि चेतनके बिना केवल जड़में पाप-पुण्य आदि होना कैसे सम्भव है ? इसका समाधान है कि जैसे एक गाड़ीकी टक्‍करसे कोई मनुष्य मर जाय तो उसका दण्ड गाड़ीको न होकर उसके चालकको होता है । दुर्घटनारूप क्रिया तो गाड़ीके द्वारा ही हुई, पर उसका दण्ड उसको भोगना पड़ता है, जिसने उस गाड़ीसे अपना सम्बन्ध जोड़ा अर्थात्‌ जो उस गाड़ीका चालक (कर्ता) बना । जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है । ऐसे ही पाप-पुण्यरूप क्रिया तो जड़ (शरीर)-के द्वारा ही होती है, पर उसका फल जड़के साथ अपना सम्बन्ध माननेवाले कर्ता (चेतन)-को ही भोगना पड़ता है । तात्पर्य है कि सभी विकार जड़-विभागमें ही होते हैं, पर जड़से तादात्म्य माननेके कारण उसका परिणाम चेतनपर होता है । जैसे ज्वर शरीरमें आता है, पर शरीरसे तादात्म्य करनेके कारण मनुष्य मान लेता है कि मेरेमें ज्वर आ गया । स्वयं (चेतन)-में ज्वर नहीं आता, यदि आता तो कभी मिटता नहीं । जड़-विभागके साथ अर्थात्‌ अपरा प्रकृतिके अंश अहम्‌के साथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लेनेके कारण ही अज्ञानी मनुष्य अपनेको कर्ता तथा भोक्ता मान लेता है‒अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७), ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३ । २१) । तात्पर्य है कि स्वयं (चेतन स्वरूप)-में कर्तापन तथा भोक्तापन बनता नहीं है, प्रत्युत वह अविवेकपूर्वक अपनेको कर्ता-भोक्ता मान लेता है । सुखलोलुपता अथवा फलेच्छाके कारण वह अपनेको कर्ता मानता है और अपनेको कर्ता माननेके कारण उसको कर्मफलका भोक्ता बनना पड़ता है । कारण कि अपनेको कर्ता मान लेनेसे वह प्रकृतिकी जिस क्रियाके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, वह क्रिया उसके लिये फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है ।

स्वयंमें लेशमात्र भी कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व नहीं है‒‘नैव किंचित्करोति सः’ (गीता ४ । २०), ‘नैव किंचित्करोमीति’ (गीता ५ । ८) । आजतक चौरासी लाख योनियोंमें जो भी क्रियाएँ की गयी हैं, उनमेंसे कोई भी क्रिया स्वयंतक नहीं पहुँची; क्योंकि स्वयंका विभाग ही अलग है और क्रियाका विभाग ही अलग है । जबतक अपने लिये ‘करना’ है, तबतक कर्तापन (अहंकार) है; क्योंकि कर्तापनके बिना अपने लिये ‘करना’ सिद्ध नहीं होता । इसलिये अपने उद्धारके लिये जो साधन किया जाता है, उससे अहंकार ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रहता है । अहंकारपूर्वक किया गया कोई भी कर्म कल्याणकारक नहीं होता; क्योंकि अहंकार ही जन्म-मरणका मूल है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह क्रियाको महत्त्व न देकर स्वयंको महत्त्व दे ।

शरीरका सम्बन्ध संसारके साथ है और स्वयंका सम्बन्ध परमात्माके साथ है । शरीर प्रकृतिका अंश है और स्वयं परमात्माका अंश है । अतः स्वयं कभी शरीरस्थ (शरीरमें स्थित) हो सकता ही नहीं । परन्तु अज्ञानके कारण मनुष्य अपनेको शरीरस्थ मान लेता है । इसमें एक मार्मिक बात है कि अपनेको शरीरस्थ मान लेनेपर भी वास्तवमें स्वयं कर्ता-भोक्ता नहीं बनता‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । इससे सिद्ध होता है कि स्वयंका कर्ता-भोक्ता न होना साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक है । अतः साधकको कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार नहीं करना है; क्योंकि वास्तवमें ये अपनेमें हैं ही नहीं । गीतामें भगवान्‌ने आत्मामें भोक्‍तृत्वके अभावको आकाशका दृष्टान्त देकर और कर्तृत्वके अभावको सूर्यका दृष्टान्त देकर समझाया है‒

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे  तथात्मा नोपलिप्यते ॥

(गीता १३ । ३२)

‘जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे कहीं भी लिप्‍त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्‍त नहीं होता ।’

चिन्मय सत्ता शरीरस्थ अथवा प्रकृतिस्थ हो ही नहीं सकती । वह आकाशकी तरह सर्वत्र स्थित (सर्वगत) है‒‘नित्यः सर्वगतः’ (गीता २ । २४) । वह सम्पूर्ण शरीरोंके बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है । वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है ।

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्‍नं लोकमिमं रविः ।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्‍नं   प्रकाशयति भारत ॥

(गीता १३ । ३३)

‘हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है ।’

सूर्यके प्रकाशमें सम्पूर्ण शुभ-अशुभ क्रियाएँ होती हैं । सूर्यके प्रकाशमें कोई वेदका पाठ करता है, कोई शिकार करता है । परन्तु सूर्यको उन क्रियाओंका न तो पुण्य लगता है, न पाप । कारण कि सूर्य उन क्रियाओंका न तो कर्ता बनता है, न भोक्ता ही बनता है । इसी तरह आत्मा (सर्वव्यापी सत्ता) सम्पूर्ण शरीरोंको सत्ता-स्फूर्ति देता है, पर वास्तवमें वह न तो कुछ करता है और न लिप्‍त ही होता है । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒

यस्य नाहंकृतो भावो    बुद्धिर्यस्य  न लिप्यते ।

हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्‍न हन्ति न निबध्यते ॥

(गीता १८ । १७)

‘जिसका अहंकृतभाव (मैं कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्‍त नहीं होती, वह (युद्धमें) इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’

जैसे गंगाजीमें कोई डूबकर मर जाता है तो गंगाजीको पाप नहीं लगता और कोई स्‍नान आदि करता है तो गंगाजीको पुण्य नहीं लगता । कारण कि गंगाजीमें अहंकृतभाव (कर्तृत्व) और बुद्धिकी लिप्‍तता (भोक्‍तृत्व) नहीं है ।

कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व प्रकृतिमें ही है, स्वरूपमें नहीं । इसलिये अपने स्वरूपमें स्थित तत्त्वज्ञ महापुरुष ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा अनुभव करता है‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् (गीता ५ । ८) । खाने-पीने, सोने-जागने, नौकरी-धन्धा करने आदि सम्पूर्ण लौकिक क्रियाएँ और श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि सम्पूर्ण पारमार्थिक क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं । स्वरूपमें कोई भी क्रिया सम्भव नहीं है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह शास्‍त्रविहित लौकिक तथा पारमार्थिक क्रियाओंका बाहरसे त्याग तो न करे, पर उनमें अपना कर्तृत्व न माने अर्थात्‌ उनको अपने द्वारा होनेवाली और अपने लिये न माने । क्रियाका महत्त्व वास्तवमें जड़ताका ही महत्त्व है । क्रियाकी मुख्यता होनेपर वर्षोंतक साधन करनेपर भी प्रत्यक्ष लाभ नहीं दीखता । इसलिये साधकके अन्तःकरणमें क्रियाका अर्थात् जड़-विभागका महत्त्व न होकर चेतन-विभागका ही महत्त्व होना चाहिये । साधक शरीर नहीं होता, जबकि क्रिया शरीरके द्वारा ही होती है । साधकका स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और सत्तामात्रमें कोई क्रिया नहीं होती । क्रिया और पदार्थ संसारका स्वरूप है ।

कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व अपनेमें नहीं हैं, प्रत्युत अज्ञानके कारण अपनेमें माने हुए हैं । अपनेमें माननेपर भी वास्तवमें हम कर्तृत्व-भोक्‍तृत्वसे रहित ही हैं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ । तात्पर्य है कि शरीरमें अपनी स्थिति माननेपर भी वास्तवमें हम शरीरसे असंग हैं । अपनेमें बन्धनकी मान्यता करनेपर भी वास्तवमें हम मुक्त ही हैं । इस सत्यको स्वीकार करना साधकके लिये बहुत ही आवश्यक है ।

नारायण !   नारायण !   नारायण ! नारायण   !