।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

एक नयी बात



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जिससे क्रियाकी सिद्धि होती है, जो क्रियाको उत्पन्‍न करनेवाला है, उसको ‘कारक’ कहते हैं । कारकोंमें कर्ता मुख्य होता है; क्योंकि सब क्रियाएँ कर्ताके ही अधीन होती हैं । अन्य कारक तो क्रियाकी सिद्धिमें सहायकमात्र होते हैं, पर कर्ता स्वतन्त्र होता है । कर्तामें चेतनका आभास होता है; परन्तु वास्तवमें चेतन कर्ता नहीं होता । इसलिये गीतामें जहाँ भगवान्‌ने कर्ममात्रकी सिद्धिमें अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव‒ये पाँच हेतु बताये हैं, वहाँ शुद्ध आत्मा (चेतन)-को कर्ता माननेवालेकी निन्दा की है‒

तत्रैवं सति  कर्तारमात्मानं  केवलं  तु यः ।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्‍न स पश्यति दुर्मतिः ॥

(१८ । १६)

‘ऐसे पाँच हेतुओंके होनेपर भी जो कर्मोंके विषयमें केवल (शुद्ध) आत्माको कर्ता देखता है, वह दुष्ट बुद्धिवाला ठीक नहीं देखता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है अर्थात्‌ उसने विवेकको महत्त्व नहीं दिया है ।’

गीतामें भगवान्‌ने कहीं प्रकृतिको, कहीं गुणोंको और कहीं इन्द्रियोंको कर्ता बताया है । प्रकृतिका कार्य गुण हैं और गुणोंका कार्य इन्द्रियाँ हैं । अतः वास्तवमें कर्तृत्व प्रकृतिमें ही है । हमारे चेतन स्वरूपमें कर्तृत्व नहीं है । भगवान्‌ने कहा है‒

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥

(१३ । २९)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहङ्कारविमूढात्मा   कर्ताहमिति   मन्यते ॥

(३ । २७)

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

(३ । २८)

नान्यं गुणेभ्यः  कर्तारं   यदा  द्रष्टानुपश्यति ।

गुणेभ्यश्‍च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥

(१४ । १९)

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥

(५ । ९)

भगवान्‌ने अपनेमें भी कर्तृत्व-भोक्‍तृत्वका निषेध किया है; जैसे‒

चातुर्वर्ण्यं    मया   सृष्टं    गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां    विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।

इति मां योऽभिजानाति   कर्मभिर्न स बध्यते ॥

(गीता ४ । १३-१४)

‘मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है । उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्‍वरको तू अकर्ता जान । कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्‍त नहीं करते । इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता ।’

न च मां तानि कर्माणि निबध्‍नन्ति धनञ्जय ।

उदासीनवदासीनमसक्तं       तेषु     कर्मसु ॥

(गीता ९ । ९)

‘हे धनजंय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते ।’

तात्पर्य है कि सृष्टिकी रचना, पालन, संहार आदि सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी भगवान्‌ उन कर्मोंसे लिप्‍त नहीं होते अर्थात्‌ उनमें कर्तापन और भोक्‍तापन नहीं आता । भगवान्‌का ही अंश होनेसे जीवमें भी कर्तापन और भोक्‍तापन नहीं आता‒

अनादित्वान्‍निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः   ।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥

(गीता १३ । ३१)

‘हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादी होनेसे और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है । यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्‍त होता है ।’

दो विभाग हैं‒जड़ और चेतन । जड़-विभाग नाशवान्‌ है और चेतन-विभाग अविनाशी है । गीतामें भगवान्‌ने जड़-विभागको प्रकृति, क्षेत्र, क्षर, आदि नामोंसे कहा है और चेतन-विभागको पुरुष, क्षेत्रज्ञ, अक्षर आदि नामोंसे कहा है । ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाशकी तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं । जड़-विभाग असत्‌ है, जिसकी सत्ता ही विद्यमान नहीं है और चेतन-विभाग सत्‌ है, जिसकी सत्ता विद्यमान है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभागमें ही होती हैं । चेतन-विभागमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती । स्थूलशरीर तथा उससे होनेवाली क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीर तथा उससे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीर तथा उससे होनेवाली स्थिरता और समाधि‒ये सभी जड़-विभागमें ही हैं । कामना, ममता, अहंता आदि सम्पूर्ण विकार जड़-विभागमें ही हैं । सम्पूर्ण पाप-ताप भी जड़-विभागमें ही हैं । पराश्रय तथा परिश्रम‒ये दोनों जड़-विभागमें हैं और भगवदाश्रय तथा विश्राम (अपने लिये कुछ न करना)‒ये दोनों चेतन-विभागमें हैं । जड़ और चेतनके विभागको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है‒‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा’ (गीता १३ । ३४) । इस ज्ञानरूपी अग्‍निसे सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं‒

अपि चेदसि पापेभ्यः   सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।

सर्वं  ज्ञानप्लवेनैव    वृजिनं   सन्तरिष्यसि ॥

यथैधांसि  समिद्धोऽग्‍निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्‍निः सर्वकर्माणि  भस्मसात्कुरुते तथा ॥

(गीता ४ । ३६-३७)

‘अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा । हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्‍नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्‍नि सम्पूर्ण (संचित, प्रारब्ध[*] तथा क्रियमाण) कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है ।’

तात्पर्य है कि चेतन-विभागमें अपनी स्वतः-स्वाभाविक स्थितिका अनुभव करते ही साधक सम्पूर्ण विकारों तथा पापोंसे छूट जाता है और जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है । कारण कि जड़-विभागके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही जन्म-मरणका मूल कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (१३ । २१)



[*] ज्ञान होनेपर प्रारब्ध अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति तो पैदा कर सकता है, पर सुखी-दुःखी नहीं कर सकता ।