।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७९, रविवार

भगवान्‌ आज ही मिल सकते हैं



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आपमें परमात्मप्राप्‍तिकी जोरदार इच्छा है ही नहीं । आप सत्संग करते हो तो लाभ जरूर होगा । जितना सत्संग करोगे, विचार करोगे, उतना लाभ होगाइसमें सन्देह नहीं है । परन्तु परमात्माकी प्राप्‍ति जल्दी नहीं होगी । कई जन्म लग जायँगे, तब उनकी प्राप्‍ति होगी । अगर उनकी प्राप्‍तिकी जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान्‌को आना ही पड़ेगा । वे तो हरदम मिलनेके लिये तैयार हैं ! जो उनको चाहता है, उसको वे नहीं मिलेंगे तो फिर किसको मिलेंगे ? इसलिये ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ कहते हुए सच्‍चे हृदयसे उनको पुकारो ।

सच्‍चे हृदयसे   प्रार्थना,    जब भक्त सच्‍चा गाय है ।

तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है ॥

भक्त सच्‍चे हृदयसे प्रार्थना करता है तो भगवान्‌को आना ही पड़ता है । किसीकी ताकत नहीं जो भगवान्‌को रोक दे । जिसके भीतर एक भगवान्‌के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है, न जीनेकी इच्छा है, न मरनेकी इच्छा है, न मानकी इच्छा है, न सत्कारकी इच्छा है, न आदरकी इच्छा है, न रुपयोंकी इच्छा है, न कुटुम्बकी इच्छा है, उसको भगवान्‌ नहीं मिलेंगे तो क्या मिलेगा ? आप पापी हैं या पुण्यात्मा हैं, पढ़े-लिखे हैं या अपढ़ हैं, इस बातको भगवान्‌ नहीं देखते । वे तो केवल आपके हृदयका भाव देखते हैं

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।

करत सुरति  सय  बार हिए की ॥

(मानस, बाल २९ । ३)

वे हृदयकी बातको याद रखते हैं, पहले किये पापोंको याद रखते ही नहीं ! भगवान्‌का अन्तःकरण ऐसा है, जिसमें आपके पाप छपते ही नहीं ! केवल आपकी अनन्य लालसा छपती है । भगवान्‌ कैसे मिलें ? कैसे मिलें ? ऐसी अनन्य लालसा हो जायगी तो भगवान्‌ जरूर मिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं है । आप और कोई इच्छा न करके, केवल भगवान्‌की इच्छा करके देखो कि वे मिलते हैं कि नहीं मिलते हैं ! आप करके देखो तो मेरी भी परीक्षा हो जायगी कि मैं ठीक कहता हूँ कि नहीं ! मैं तो गीताके बलपर कहता हूँ । गीतामें भगवान्‌ने कहा हैये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (४ । ११) जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ । हमें भगवान्‌के बिना चैन नहीं पड़ेगा तो भगवान्‌को भी हमारे बिना चैन नहीं पड़ेगा । हम भगवान्‌के बिना रोते हैं तो भगवान्‌ भी हमारे बिना रोने लग जायँगे ! भगवान्‌के समान सुलभ कोई है ही नहीं ! भगवान्‌ कहते हैं

अनन्यचेताः सततं  यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥

(गीता ८ । १४)

हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे प्राप्‍त हो जाता हूँ ।

भगवान्‌ने अपनेको तो सुलभ कहा है, पर महात्माको दुर्लभ कहा है

बहूनां जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

(गीता ७ । १९)

बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्ममें अर्थात् मनुष्यजन्ममें सब कुछ परमात्मा ही हैंइस प्रकार जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।

हरि दुरलभ नहिं जगत में,   हरिजन दुरलभ होय ।

हरि हेर्‌याँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय ॥

भगवान्‌के भक्त तो सब जगह नहीं मिलते, पर भगवान्‌ सब जगह मिलते हैं । भक्त जहाँ भी निश्‍चय कर लेता है, भगवान्‌ वहीं प्रकट हो जाते हैं

आदि  अन्त   जन  अनँत के,  सारे   कारज  सोय ।

जेहि जिव ऊर नहचो धरै, तेहि ढिग परगट होय ॥

प्रह्लादजीके लिये भगवान्‌ खम्भेमेंसे प्रकट हो गये

प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े ॥

(कवितावली ७ । १२७)

भगवान्‌ सबके परम सुहृद हैं । वे पापी, दुराचारीको जल्दी मिलते हैं । माँ कमजोर बालकको जल्दी मिलती है । एक माँके दो बेटे हैं । एक बेटा तो समयपर भोजन कर लेता है, फिर कुछ नहीं लेता और दूसरा बेटा दिनभर खाता रहता है । दोनों बेटे भोजनके लिये बैठ जायँ तो माँ पहले उसको रोटी देगी जो समयपर भोजन करता है; क्योंकि वह भूखा उठ जायगा तो शामतक खायेगा नहीं । दूसरे बेटेको माँ कहती है कि तू ठहर जा; क्योंकि वह तो बकरीकी तरह दिनभर चरता रहता है । दोनों एक ही माँके बेटे हैं, फिर भी माँ पक्षपात करती है । इसी तरह जो एक भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं चाहता, उसको भगवान्‌ सबसे पहले मिलते हैं; क्योंकि वह भगवान्‌को अधिक प्रिय है । वह एक भगवान्‌के सिवाय अन्य किसीको अपना नहीं मानता । वह भगवान्‌के लिये दुःखी होता है तो भगवान्‌से उसका दुःख सहा नहीं जाता ।

कोई चार-पाँच वर्षका बालक हो और उसका माँसे झगड़ा हो आय तो माँ उसके सामने ढीली पड़ जाती है । संसारकी लड़ाईमें तो जिसमें अधिक बल होता है, वह जीत जाता है, पर प्रेमकी लड़ाईमें जिसमें प्रेम अधिक होता है, वह हार जाता है । बेटा माँसे कहता है कि मैं तेरी गोदीमें नहीं आऊँगा, पर माँ उसकी गरज करती है कि आ जा, आ जा बेटा ! माँमें यह स्‍नेह भगवान्‌से ही तो आया है । भगवान्‌ भी भक्तकी गरज करते हैं । भगवान्‌को जितनी गरज है, उतनी गरज दुनियाको नहीं है । माँको जितनी गरज होती है, उतनी बालकको नहीं होती । बालक तो माँका दूध पीते समय दाँतोंसे काट लेता है, पर माँ क्रोध नहीं करती । अगर वह क्रोध करे तो बालक जी सकता है क्या ? माँ तो बालकपर कृपा ही करती है । ऐसे ही भगवान्‌ हमारी अनन्त जन्मोंकी माता है । वे भक्तकी उपेक्षा नहीं कर सकते । भक्तको वे अपना मुकुटमणि मानते हैंमैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणिभक्तोंका काम करनेके लिये भगवान्‌ हरदम तैयार रहते हैं । जैसे बच्‍चा माँके बिना नहीं रह सकता और माँ बच्‍चेके बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भक्त भगवान्‌के बिना नहीं रह सकता और भगवान्‌ भक्तके बिना नहीं रह सकते ।

नारायण !   नारायण !   नारायण !   नारायण !