।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल त्रयोदशी , वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

सत्यकी स्वीकृतिसे कल्याण



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मनुष्यके देखनेमें दो चीजें आती हैं‒एक अविनाशी और दूसरा, नाशवान्‌ ! स्वरूप अविनाशी है और शरीर-संसार नाशवान्‌ हैं । स्वरूपके विषयमें गीता और रामायणमें आया है‒

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । (गीता १५ । ७)

‘इस संसारमें जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है ।’

ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥

(मानस, उत्तरकाण्ड ११७ । १)

तात्पर्य है कि हमारा सम्बन्ध शरीर-संसारके साथ नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌का अंश होनेसे हमारा सम्बन्ध भगवान्‌के साथ ही है । हमारेसे खास भूल यह हुई है कि हमने अपनेको संसारका और संसारको अपना मान लिया अर्थात्‌ शरीर-संसारके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया ।

परमात्माके अंश होनेके कारण वास्तवमें हम परमात्मासे दूर हो सकते ही नहीं और संसारके साथ मिलकर एक हो सकते ही नहीं‒यह एकदम पक्‍की, सिद्धान्तकी बात है । परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध कभी टूट सकता ही नहीं और जड़ शरीर-संसारके साथ हमारा सम्बन्ध हो सकता ही नहीं । परन्तु जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है, उसको तो भुला दिया और जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है, उसको अपना मान लिया‒यह हमारेसे बड़ी भारी गलती हुई है । अगर हम यह मान लें कि हम भगवान्‌के हैं और भगवान्‌ हमारे हैं तो ‘संसार हमारा नहीं है’‒यह अपने-आप सिद्ध हो जायगा । अगर हम यह मान लें कि हम संसारके नहीं हैं और संसार हमारा नहीं हैं तो ‘भगवान् हमारे हैं’‒यह अपने-आप सिद्ध हो जायगा । दोनोंमेंसे कोई एक बात सिद्ध कर लें ।

विचार करें, क्या जड़ तथा परिवर्तनशील संसारके साथ हमारी एकता हो सकती है ? अगर नहीं हो सकती तो इस बातको मानना शुरू कर दें कि संसारके साथ हमारी एकता नहीं है; इसके साथ एकता मानना गलती है । कम-से-कम यह गलती भीतरसे हमारी समझमें आ जाय तो समय पाकर सब काम ठीक हो जायगा । अगर संसारके साथ अपनी एकता मानें तो केवल नुकसान ही है, फायदा कोई नहीं है और एकता न मानें तो केवल फायदा ही है, नुकसान कोई नहीं है ।

एकदम सच्‍ची बात है कि शरीर अपने साथ नहीं रहेगा । जो चीज अपनी नहीं है, वह अपने साथ कैसे रहेगी ? भगवान्‌ अपने हैं, वे अपनेसे दूर कैसे हो जायँगे ? न तो हम भगवान्‌से दूर हो सकते हैं और न भगवान्‌ ही हमसे दूर हो सकते हैं । शरीर, पदार्थ, रुपये, जमीन, मकान आदि सब-के-सब नाशवान्‌ हैं । ये हमारे साथ नहीं रह सकते और हम इनके साथ नहीं रह सकते । परन्तु भगवान्‌को हम जानें, चाहे न जानें, उनसे हमारा कभी वियोग हो ही नहीं सकता‒यह पक्‍की बात है । शरीर चाहे स्थूल हो, चाहे सूक्ष्म हो, चाहे कारण हो, वह सर्वथा प्रकृतिका है और हम अच्छे-मन्दे कैसे ही हों, सर्वथा भगवान्‌के हैं । अगर यह बात समझमें आ जाय तो हम आज ही जीवन्मुक्त हैं ! कारण कि नाशवान्‌ चीजोंको अपना मानकर ही हम बँधे हैं । जिनको अपना माना है, उनसे ही बँधे हैं । जिनको अपना नहीं माना, उनसे नहीं बँधे हैं ।

प्रश्न‒बात समझमें तो आती है, पर भीतरमें स्वीकृति नहीं होती, क्या करें ?

उत्तर‒विचार करें, आप इस बातकी स्वीकृति होना ठीक समझते हैं अथवा स्वीकृति न होना ठीक समझते हैं ? अगर स्वीकृति होना ठीक समझते हैं तो फिर मना कौन करता है ? अगर कोई लाभकी बात हो तो उसको जबर्दस्ती मान लेना चाहिये । मान लेनेपर फिर वह बात सुगम हो जाती है । वास्तवमें आप भीतरसे चाहते नहीं हैं । हमारी समझसे इसका मूल कारण है‒सुखलोलुपता । सुखलोलुपताके कारण ही सच्‍ची बातकी स्वीकृति नहीं हो रही है ।

आप आँखें मीचकर, दाँत भींचकर, छाती कड़ी करके यह मान लो कि हम भगवान्‌के हैं और भगवान्‌ हमारे हैं । शरीर अपना नहीं है, नहीं है, नहीं है । जब शरीर भी अपना नहीं है, तो फिर संसारमें क्या चीज अपनी है ?