।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्दशी, 
वि.सं.-२०७५, सोमवार
 अनन्तकी ओर     


गीतामें आया है‒

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
 तयोर्न  वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
                                                (गीता ३ । ३४)

इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें) विघ्न डालनेवाले शत्रु हैं ।’

जिसमें सुख दीखता है, उसमें राग हो जाता है और जिसमें दुःख दीखता है, उसमें द्वेष हो जाता है । राग-द्वेष रहते हुए कर्तव्यका पालन नहीं होता । इसलिये साधकको अपनी तरफसे समता रखते हुए कर्तव्यका पालन करना चाहिये । राग’ से ममता, आसक्ति आदि और द्वेष’ से क्रोध आदि अनेक दोष पैदा होते हैं । इसलिये भगवान्‌ने अपने कर्तव्यका पालन करनेमें राग-द्वेषके वशीभूत न होनेकी आज्ञा दी है ।

अब प्रश्‍न होता है कि राग-द्वेषका नाश कैसे हो ? इसका उपाय यह है कि राग-द्वेषके वशीभूत होकर काम न करे । जैसे अच्छी खुराक देनेसे पहलवान पुष्‍ट होता है, ऐसे ही राग-द्वेषके अनुसार कार्य करनेसे राग-द्वेष पुष्‍ट होते हैं । राग-द्वेष अनुकूलता-प्रतिकूलताको लेकर होते हैं, इसलिये अनुकूलता-प्रतिकूलतामें सम रहे । समतामें रहकर काम करे । पहले यह देखें कि आपका उद्देश्य मुक्त होना है या संसारमें फँसना है ? अगर आपका उद्देश्य संसारमें फँसना है तो राग-द्वेष नहीं छूटेंगे । अगर आपको अपना कल्याण करना है तो राग-द्वेषके वशीभूत न होकर उसपर विजय प्राप्त करनी चाहिये । स्वार्थभाव होनेसे ही राग-द्वेष रहते हैं । अतः राग-द्वेषपर विजय प्राप्त करनेका उपाय है‒अपने स्वार्थका त्याग और दूसरेके हितका ध्येय । सबके साथ व्यवहार करते हुए यह विचार रखें कि सब-के-सब सुखी हो जायँ, सब-के-सब नीरोग हो जायँ, सबके यहाँ आनन्द-मंगल हो, किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो‒

सर्वे   भवन्तु   सुखिनः  सर्वे  सन्तु  निरामयाः ।
 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥

इस प्रकार अपने स्वार्थका त्याग करके सबके हितकी तरफ दृष्‍टि रखनेसे राग-द्वेष नहीं रहते ।

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई ।
 पर  पीड़ा सम नहिं  अधमाई ॥
                                         (मानस, उत्तर ४१ । १)

परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
                                         (मानस, अरण्य ३१ । ५)

एक सुख होता है, एक हित होता है । दूसरेके हितकी दृष्टि हो, सुखकी दृष्टि नहीं । हितकी दृष्टि लम्बी होती है, पर सुख तात्कालिक होता है । हित करनेकी अपेक्षा भी अहित न करना व्यापक है, मूल्यवान् है । हित करना सीमित होता है, पर अहित न करना असीम होता है । हित करनेमें तो खर्चा भी होता है और परिश्रम भी होता है, पर अहित न करनेमें खर्चा भी नहीं होता और परिश्रम भी नहीं होता । निष्कामभाव होनेसे अपना हित होता है ।


एक प्रवृत्तिरूप साधन होता है, एक निवृत्तिरूप साधन होता है । निवृत्तिरूप साधन तेज होता है; क्योंकि हमें संसारमात्रकी निवृत्ति ही करनी है । सब संसारसे निवृत्ति होगी, तब राग-द्वेष मिटेंगे तथा परमात्माकी प्राप्ति होगी ।

|
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ त्रयोदशी, वि.सं.-२०७५, रविवार
 अनन्तकी ओर     



आप संसारके लिये रोओ तो भी संसार राजी नहीं होगा, पर भगवान्‌के लिये व्याकुल हो जाओ तो भगवान् व्याकुल हो जायँगे ! जितना सत्संग करोगे, विचार करोगे, उतना फायदा जरूर होगा‒इसमें सन्देह नहीं है; परन्तु परमात्माकी प्राप्ति जल्दी नहीं होगी ! कई जन्म लग जायँगे, तब होगी ! केवल परमात्मप्राप्तिकी जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान्‌को आना ही पड़ेगा.....आना ही पड़ेगा ! किसीकी ताकत नहीं कि भगवान्‌को रोक दे ! भगवान् कहते हैं कि जो जैसा मेरा भजन करते हैं, मैं भी उनका वैसा ही भजन करता हूँ‒‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४ । ११) । जो मेरे बिना रो पड़ता है, उसके बिना मैं भी रो पड़ता हूँ !

संसारकी प्राप्तिमें तो क्रिया और पदार्थ मुख्य हैं, पर भगवान्‌की प्राप्तिमें भगवान्‌का आश्रय और चुप रहना (कुछ न करना) मुख्य हैं । भगवान्‌का आश्रय लेकर, उनके चरणोंमें पड़कर कुछ भी चिन्तन न करे । अगर नींद अथवा आलस्य आये तो चुप साधन न करें, प्रत्युत कीर्तन करें, भगवान्‌का नाम लें ।

भगवान्‌के चरणोंका आश्रय लेकर उसीमें तल्लीन हो जायँ । कुछ भी चिन्तन न करें‒‘आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ (गीता ६ । २५) । यह परमात्माकी प्राप्तिका बहुत सुगम तथा बढ़िया साधन है । नित्य-निरन्तर भगवान्‌के चरणोंमें बने रहें । जो तत्परतासे साधन करता है, जिसकी परमात्मप्राप्तिकी नीयत है, उसके सब पाप चुप, स्थगित हो जाते हैं; जैसे‒कोई कर्जदार आदमी किसी बड़े सेठ, राजा-महाराजाके शरण हो जाय तो सब लेनदार चुप हो जाते हैं कि अब यह सब चुका देगा । भगवान्‌ने कहा है‒

सर्वधर्मान्परित्यज्य    मामेकं     शरणं    व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                     (गीता १८ । ६६)

सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर ।’


हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ कहकर भगवान्‌के चरणोंकी शरण हो जायँ तो सब पाप स्थगित हो जायँगे । हे नाथ ! हे नाथ !’ करो और कुछ भी चिन्तन मत करो । संसारका चिन्तन हो जाय तो भगवान्‌का चिन्तन करो, नहीं तो कुछ भी चिन्तन मत करो । भगवान्‌का चिन्तन करनेसे भगवान्‌से दूर होते हैं । चिन्तन न करें तो परमात्मामें ही स्थिति होती है ।

|
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ द्वादशी, वि.सं.-२०७५, शनिवार
 अनन्तकी ओर     



जिस दिन आपका विचार हो जायगा कि भगवान्‌के बिना मैं रह नहीं सकता तो भगवान् भी आपके बिना रह नहीं सकेंगे । एक मच्छर गरुड़जीसे मिलना चाहे और गरुड़जी मच्छरसे मिलना चाहें तो मच्छरसे मिलनेमें गरुड़की ताकत काम करेगी और वे यहीं उसे मिल जायँगे । मच्छरमें उड़नेकी कितनी ताकत है ? इसी तरह भगवान्‌से मिलनेकी इच्छा हो तो आपसे मिलनेमें भगवान्‌की ताकत काम करेगी, आपकी ताकत काम नहीं करेगी । आप विचार करो, आप भगवान्‌के पास नहीं पहुँच सकते तो क्या भगवान् भी आपके पास नहीं पहुँच सकते ? वे तो आपके हृदयमें विराजमान हैं ! भगवान्‌को आप दूर मानते हो, इसलिये भगवान् दूर होते हैं । आप मानोगे कि भगवान् मेरेको नहीं मिलेंगे तो वे नहीं मिलेंगे ।

आपको गोरखपुरकी एक घटना सुनायें । संवत् २००० से पहलेकी बात है । मैंने एक दिन व्याख्यानमें कह दिया कि आपका विचार हो जाय कि भगवान् आज मिलेंगे तो वे आज ही मिल जायँगे । एक बैंकमें काम करनेवाले सज्जन थे, नाम था‒सेवारामजी । उनको यह बात लग गयी ! वे माला ले आये, चन्दन घिस लिया कि भगवान् आयेंगे तो माला पहनाऊँगा, चन्दन लगाऊँगा । भगवान्‌के आनेकी प्रतीक्षामें बैठ गये । भगवान्‌के आनेकी उम्मीद भी हो गयी, सुगन्ध भी आने लगी, पर भगवान् आये नहीं । दूसरे दिन उन्होंने मेरेको कहा आज हमारे घर भिक्षा लो । मैं कई घरोंसे भिक्षा लेकर पाता था । उनके घर गया तो उन्होंने मेरेसे पूछा कि बात क्या है, भगवान् आये क्यों नहीं ? मैंने उनसे पूछा कि सच्‍चे हृदयसे बताओ कि तुम्हारे मनमें भगवान् इतनी जल्दी कैसे मिलेंगे’यह बात आती थी कि नहीं ? उन्होंने कहा कि यह बात तो आती थी । मैंने कहा कि इसी बातने अटकाया ! अगर यह बात होती कि मेरेको तो भगवान् मिलेंगे ही, मिलना ही पड़ेगा तो बिल्कुल मिलते । अतः यह बाधा तुम्हारी ही लगायी हुई है ! क्या भगवान्‌को भी मिलनेमें देरी लगती है ? क्या भगवान्‌को भी उद्योग करना पड़ता है ?

आज भी किसीके मनमें भगवान्‌से मिलनेका विचार हो तो आज विचार कर लो, आज ही मिल जायँगे ! रात्रिमें बैठ जाओ कि भगवान् मिलेंगे । परन्तु आपके मनमें यह छाया नहीं आनी चाहिये कि इतनी जल्दी कैसे मिलेगे ? फिर दुनिया कुछ भी कहे, कोई परवाह नहीं ! भगवान् आपके कर्मोंसे अटकते नहीं । आपके पापोंसे, दुष्कर्मोंसे भगवान् अटक जायँ तो मिलकर भी क्या निहाल करेंगे ! ऐसी कोई शक्ति है ही नहीं, जो आपको भगवान्‌से न मिलने दे ! कोई भाई-बहन कैसा ही क्यों न हो, जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान् मिलेंगे, मिलेंगे, मिलेगे ! जरूर मिलेंगे ! भगवान्‌को मिलना ही पड़ेगा ! परन्तु आपके भीतर यह बात नहीं रहनी चाहिये कि इतनी जल्दी भगवान् नहीं मिलते । यह बात रहेगी तो भगवान् अटक जायँगे !


अगर हमारे पापोंके कारण भगवान् न मिलते हों तो हमारे पाप भगवान्‌से बलवान् हुए । अगर पाप बलवान् हुए तो भगवान् मिलकर क्या निहाल करेंगे ! भगवान् इतने निर्बल नहीं हैं कि पापकर्मोंसे अटक जायँ । उनके समान बलवान् कोई है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । ऐसे भगवान् हमारेको क्यों नहीं मिलते ? क्योंकि हम उन्हें चाहते नहीं । हमारे भीतर रुपयोंकी चाहना है, फिर भगवान् बीचमें क्यों आयेंगे ? मानो भगवान् कहते हैं कि अगर मेरे बिना तेरा काम चलता है तो मेरा काम भी तेरे बिना चलता है !

|