।। श्रीहरिः ।।

                     


आजकी शुभ तिथि–
       चैत्र पूणिमा, वि.सं.२०७८ मंंगलवार
   करनेमें सावधानी, होनेमें प्रसन्नता


मनुष्यका अनादी कालसे जो स्वभाव बना है, उसके वशीभूत होकर कर्म करता है, परन्तु वह मान लेता है कि वह जो कुछ करता है, प्रभु-प्रेरणासे करता है । वास्तविकता यह है कि जबतक मनुष्यमें कर्तृत्व-अभिमान है; फलेच्छा है, आसक्ति है, कामना है तबतक वह प्रभु-प्रेरणासे कार्य नहीं करता । वह कामनाकी प्रेरणासे कार्य करता है और उसका फल बन्धन होता है । परन्तु जब स्वार्थ, कामना, राग, विषमता आदि नहीं रहते और अन्तःकरण निर्मल होता है; तो उसकी क्रिया फलजनक नहीं होती, बन्धनकारक नहीं होती ।

कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ।     (गीता ४/१८)

अर्थात्‌ वह मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है । और‒

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥

(गीता ४/१९)

‘समारम्भाः’ अर्थात्‌ सम्यक आरम्भ, आरम्भमें कम नहीं अर्थात्‌ क्रियाओंमें किंचिन्मात्र भी त्रुटि नहीं होती । और ‘कामसंकल्पवर्जिताः’ अर्थात्‌ कामनाका संकल्प किंचिन्मात्र भी नहीं, ऐसे पुरुष ‘ज्ञानाग्निदग्धकर्मा’ होते हैं अर्थात्‌ उनके सब-के-सब कर्म ज्ञानरूपी अग्निमें दग्ध हो जाते हैं । ज्ञान क्या ? कि प्रकृति और पुरुषका सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । उस समय क्रियाएँ सब प्रकृतिमें रहतीं हैं, अपनेमें नहीं रहतीं तो कर्म नहीं बनते । कर्म ज्ञानरूपी अग्निसे दग्ध हो जाते हैं और ज्ञान कब होता है ? कि जब ‘सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः’ सम्पूर्ण कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं । और जबतक काम और संकल्प रहते हैं तबतक क्रियाएँ मनुष्यकी स्वयं होती हैं ।

अब विचार करना है कि जब क्रियाएँ स्वयंकी होती हैं तो यह क्रियाओंके करनेमें स्वतन्त्र है या परतन्त्र ? तो कहते हैं कि करनेमें भी अधिकारके अनुसार स्वतन्त्र है, सर्वथा स्वतन्त्र नहीं । जैसे आप अपने देशमें रहनेके लिये स्वतन्त्र है, परन्तु दूसरे देशमें जानेके लिये वहाँसे आज्ञा लेनी पड़ेगी । इसी प्रकार मनुष्य करनेमें अपने-अपने क्षेत्र एवं अधिकारके अनुसार स्वतन्त्र है । हम मनुष्य लोकमें काम करनेमें स्वतन्त्र हैं परन्तु लोकोत्तर जानेमें हम स्वतन्त्र नहीं हैं ।

दूसरी बात है कि हम जो कर्म करते हैं उसमें पाँच हेतु होते हैं:‒

अधिष्ठानं तथा कर्ता   करणं च पृथग्विधम् ।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चिवात्र पञ्चमम् ॥

(गीता १८/१४)

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म     प्रारभते  नरः ।

न्यायं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥

(गीता १८/१५)

ये पाँच हेतु होते हैं । इसमें विहित कर्मके जो संस्कार हैं वे भी हेतु हैं और जो चेतन सत्ता है, वह भी हेतु है ।

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।। श्रीहरिः ।।

                    


आजकी शुभ तिथि–
       चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७८ सोमवार
   करनेमें सावधानी, होनेमें प्रसन्नता


ईश्वरः सर्वभूतानां     हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥

(गीता १८/६१)

इसका अर्थ हुआ कि ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनी मायासे भ्रमण कराते हुए सब प्राणियोंके हृदयमें स्थित हैं । तो प्रश्न उठता है कि सब कुछ ईश्वर ही कराते हैं क्या ?

तो अब इसका उत्तर सुनिये । एक होता है ‘करना’ और एक होता है ‘होना’ । तो करनेमें तो हम सबका अधिकार है; परन्तु होनेमें अधिकार नहीं । भगवान्‌ कहते हैं‒

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा  ते संगोस्त्वकर्मणि ॥

(गीता २/४७)

तेरा कर्म करनेमें अधिकार है, फलमें कभी नहीं । इसलिये तू कर्मके फलका हेतु मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो ।

एक तो हम करते हैं और एक होता है । तो कर्म तो हम करते हैं और फल होता है । करनेमें जो कर्तृत्व अभिमान रहता है, वही अगाड़ी (आगे) फलभोगमें परिणत होता है । परन्तु कर्तृत्वरहित जो क्रिया होती है, वह कर्म नहीं बनती और न फलभोगमें परिणत होती है । हम जो काम करते हैं वह कामना तथा आसक्ति लेकर करते हैं और जो होता है वह भगवान्‌द्वारा बनाये हुए विधानसे होता है ।

करनेमें मनुष्यको सावधान रहना चाहिये और होनेमें प्रसन्न रहना चाहिये । करनेमें सावधानीका तात्पर्य है कि कर्तृत्व-अभिमान तथा फलकी इच्छाका त्याग करके अपनी पूरी शक्ति तथा सामर्थ्यसे कार्य करें, क्योंकि कर्तृत्व-अभिमान और फलेच्छाको रखकर जो कर्म किया जाता है, वह बाँधनेवाला होता है । परन्तु‒

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥

(गीता १८/१७)

जिसके अहंकृत भाव नहीं है और बुद्धिका लेप, आसक्ति, कामना आदि नहीं है वह सब लोकोंको मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है; क्योंकि उसमें कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व नहीं है । अतः करनेमें सावधान रहनेका अर्थ हुआ कि कर्तापनके अभिमानका और भोग-इच्छा दोनोंका त्याग करे । वह कर्तापन और भोक्तापन भगवान्‌का बनाया हुआ नहीं है, यह जीवने स्वयं बनाया है‒

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु ।

  कर्मफलसंयोगं    स्वभावस्तु  प्रवर्तते ॥

(गीता ५/१४)

परमात्मा न तो कर्तृत्वको पैदा करते हैं, न कर्मोंको करवाते हैं कि अमुक-अमुक काम तुम करो और न कर्मके फलके साथ सम्बन्ध करवाते हैं कि यह कर्म करनेसे तुम्हें यह फल मिलेगा । यह भगवान्‌की रचना की हुई नहीं है । कर्तृत्व इसने स्वयं बनाया है, कर्म स्वयं करता है और फलका भागी स्वयं बनता है ।

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।। श्रीहरिः ।।

                   


आजकी शुभ तिथि–
       चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७८ रविवार
            हम भगवान्‌के हैं


सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।

जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥

(मानस, सुन्दरकाण्ड ४४/१)

पुराने पाप नष्ट हो जायँगे और नया पाप होगा ही नहीं । कारण कि पाप-कर्म तभी होता है, जब हम संसारको अपना मानकर उससे कुछ चाहते हैं । अगर संसारको अपना न मानकर, उससे कुछ न चाहकर भगवान्‌को अपना मान लें तो इसी क्षण अनन्त जन्मोंके पाप छूट जायँगे । भगवान्‌ अपने हैं‒यह बार-बार कहनेकी जरूरत नहीं है । जैसे, माँको हम अपना मान लेते हैं तो इसको बार-बार नहीं कहना पड़ता । माँ तो अपनी बनी हुई है, पर भगवान्‌ अपने बने हुए नहीं हैं । माँके पेटमें आये हैं, उसका दूध पिया है, तब माँ बनी है । परन्तु भगवान्‌ पहलेसे (सदासे) ही अपने हैं और सदा अपने रहेंगे । संसारका कोई भी सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है । अभी मर जायँ तो सभी सम्बन्ध मिट जायँगे । मिटता वही है, जो नहीं होता और टिकता वही है, जो होता है । टिकनेवाली बातको हम पकड़ लें, उधर दृष्टी कर लें‒इतना ही हमारा काम है ।

हम भगवान्‌के हैं, भगवान्‌ हमारे हैं । शरीर संसारका है, संसार शरीरका है । हमारी और परमात्माकी एकता है । शरीर और संसारकी एकता है । इसको सन्तोंने ‘सत्संग’ कहा है । सत्‌का संग करना, सत्‌को स्वीकार करना ‘सत्संग’ है । सत्संग करें तो कोई बन्धन है ही नहीं । हमारा सम्बन्ध शरीर-संसारके साथ है ही नहीं‒यह बात मान लें तो इससे बड़ा कोई काम है ही नहीं । हजारों-लाखों आदमियोंको भोजन करायें तो वह भी इसके बराबर नहीं हो सकता । हम सदासे ही शरीरसे अलग हैं । इसमें सन्देहकी कोई बात ही नहीं है । हमने अपनेको शरीर-संसारके साथ मान रखा है‒इस गलत धारणाको छोड़ना है । इसको छोड़ दें तो अभी इसी क्षण मुक्ति है ।

हमारेसे भूल यह होती है कि संसारके जो सम्बन्ध रहनेवाले नहीं हैं, उनको तो हम मान लेते हैं और जो सम्बन्ध सदा रहनेवाला है, उसको मानते ही नहीं ! जिससे बन्धन होता है, उसको तो मान लेते हैं और जिससे मुक्ति होती है, उसको मानते ही नहीं ! संसारका कोई भी सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है । कितना ही जोर लगा लें, संसारका सम्बन्ध रख सकते ही नहीं ! इसी तरह कितना ही जोर लगा लें, भगवान्‌का सम्बन्ध तोड़ सकते ही नहीं । भगवान्‌में भी ताकत नहीं कि वे हमारा सम्बन्ध तोड़ दें । वे सर्वसमर्थ होते हुए भी हमें छोड़नेमें असमर्थ हैं ।

मैं भगवान्‌का हूँ‒इसका चिन्तन करनेकी जरूरत नहीं है । यह बात चिन्तनके अधीन नहीं है, प्रत्युत माननेके अधीन है । जैसे, यह खम्भा है तो अब इसमें चिन्तन क्या करें ? दो और दो चार ही होते हैं, इसमें चिन्तन क्या करें ? हम भगवान्‌के हैं‒यह सच्ची बात है । सच्ची बातको मान लें तो निहाल हो जायँगे । अगर शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध होता तो शरीरके बदलनेपर हम भी बदल जाते । पर शरीर बदलता है, हम वही रहते हैं । शरीर बालक, जवान और बूढ़ा होता है, हम बालक, जवान और बूढ़े नहीं होते । हम शरीर भी नहीं हैं और शरीरी (शरीरवाले) भी नहीं हैं । हम शरीरसे अलग हैं और शरीर हमारेसे अलग है । शरीरसे अलग होनेसे ही हम एक शरीरको छोड़ते हैं और दूसरे शरीरको धारण करते हैं । हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं‒यह एकदम सच्ची, पक्की और सिद्धान्तकी बात है । इसलिये हमें आज ही सुनना, पढ़ना, सिखना आदि बन्द करके जानना और मानना आरम्भ कर देना चाहिये । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें एक भी वस्तु अपनी नहीं है, यहाँतक कि ये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि भी अपने नहीं हैं‒यह जानना है, और केवल भगवान्‌ ही अपने हैं‒यह मानना है । सुनने, पढ़ने, सीखने आदिसे हम विद्वान बन सकते हैं, वक्ता बन सकते हैं, लेखक बन सकते हैं, पर हमारा बन्धन ज्यों-का-त्यों रहेगा । परन्तु ‘हमारा कोई नहीं है’‒ऐसा जान लें तो हम मुक्त हो जायँगे और ‘केवल प्रभु ही हमारे हैं’‒ऐसा मान लें तो हम भक्त हो जायँगे ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे

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