(गत ब्लॉगसे आगेका)
पाप हो जाता है, अन्याय हो जाता है, झूठ-कपट हो जाता है तो क्या ‘है’ का अभाव हो जाता है ? आप ‘है’ की तरफ देखो । ‘है’ में कोई फर्क पड़ता है क्या ? जब आप ‘नहीं’को ‘है’ मान लेते हो, तब बाधा लगती है । ‘नहीं’ को ‘नहीं’ मानो और ‘है’ को ‘है’ मानो । कोई पाप हो गया तो भूल हो गयी बीचमें ! भूलके आधारपर ‘है’ का निषेध क्यों करते हो ?
श्रोता‒‘है’ को मान लिया, पर प्रत्यक्ष अनुभव हुए बिना यह मान्यता टिकती नहीं है !
स्वामीजी‒देखो भाई ! यह आँखसे नहीं दीखेगा । देखना दो तरहका होता है‒एक आँखसे होता है और एक भीतरमें माननेसे होता है । भीतरसे अनुभव हो जाय, बुद्धिसे बात जँच जाय‒इसको देखना कहते हैं । यह ‘है’ आँखसे कभी दीखेगा ही नहीं । यह तो माननेमें ही आता है । आपका नाम, जाति, गाँव, मोहल्ला, घर क्या अभी देखनेमें आ रहे हैं ? देखनेमें नहीं आ रहे हैं तो क्या ये नहीं हैं ? जो देखनेमें नहीं आता, वह होता ही नहीं‒ऐसी बात नहीं है । जो देखनेमें नहीं आता, वही होता है । परमात्मा देखनेमें न आनेपर भी हैं । नाम, जाति आदिके होनेमें कोई शास्त्र आदिका प्रमाण नहीं है, प्रत्युत यह केवल आपकी कल्पना है । परन्तु परमात्माके होनेमें शास्त्र, वेद, सन्त-महात्मा प्रमाण हैं और उसको माननेका फल भी विलक्षण (कल्याण) है । इसलिये परमात्माको दृढ़तासे मानो ।
गलती तो पैदा होनेवाली और मिटनेवाली है, पर परमात्मा पैदा होनेवाला और मिटनेवाला नहीं है । पैदा होनेवाली वस्तुसे पैदा न होनेवाली वस्तुका निषेध क्यों करते हो ? हमारेसे झूठ-कपट हो गया तो यह परमात्माका होनापन थोड़े ही मिट गया ! परमात्माके होनेमें क्या बाधा लगी ? यह मानो कि पाप हो गया तो वह भूल हुई, पर परमात्मा है‒यह भूल नहीं है । परमात्माको जितनी दृढ़तासे मानोगे, उतनी भूलें होनी मिट जायेंगी । जिस समय भूल होती है उस समय आप ‘परमात्मा है’‒इसको याद नहीं रखते । इसकी याद न रहनेसे ही भूल होती है । जो ‘है’ उससे विमुख हो जाते हैं, उसको भूल जाते हैं, तब यह भूल होती है । इसलिये अपनेको उससे विमुख होना ही नहीं है । कभी अचानक कोई भूल हो भी जाय तो उस भूलको महत्व मत दो । जो सच्ची चीज है, उसको महत्त्व दो । भूल तो मिट जाती है, पर परमात्मा रहता है, मिटता है ही नहीं । जो हरदम रहता है, उसको मानो । अब बोलो, क्या बाधा लगी ?
श्रोता‒वर्षोंसे यह बात सुनते हैं, पर फिर भी खालीपन मालूम देता है !
स्वामीजी‒पर खालीपनका ज्ञान आपको है कि नहीं ? खालीपनका ज्ञान भी खाली है क्या ? आप ज्ञानका तो निरादर करते हैं और खालीपनका आदर करते हैं । ज्ञान तो ठोस है, उसमें खालीपन है ही नहीं । खालीपन (नहीं) को जाननेवाला ठोस (है) ही हुआ, खाली कैसे हुआ ? वास्तवमें खालीपन है नहीं । असत्की सत्ता माननेसे ही खालीपन दीखता है; क्योंकि असत्की सत्ता नहीं है । तात्पर्य है कि आपने असत्की सत्ता मान रखी है और असत्की प्राप्ति होती नहीं, तब खालीपन दीखता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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