(गत ब्लॉगसे आगेका)
यह प्रत्यक्ष बात है कि जो मालिक अच्छे नौकरोंका तिरस्कार करता
है, उसको फिर अच्छे नौकर नहीं मिलेंगे; और जो नौकर अच्छे मालिकका तिरस्कार करता है उसको फिर अच्छा मालिक
नहीं मिलेगा । अच्छे सन्त-महात्माओंका संग पाकर जो अपना उद्धार नहीं करता,
उसको फिर वैसा संग नहीं मिलेगा । जिनसे लाभ हुआ है ऐसे अच्छे
सन्तोंका जो त्याग करता है, उनकी निन्दा, तिरस्कार करता है, उसको फिर वैसे सन्त नहीं मिलेंगे । जैसे माता-पिता प्रसन्न होकर
बालकको मिठाई देते हैं, पर बालक उस मिठाईको न खाकर गन्दी नालीमें फेंक देता है तो फिर
माता-पिता उसको मिठाई नहीं देते । ऐसे ही भगवान् विशेष कृपा करके मनुष्य-शरीर देते
हैं, पर मनुष्य उस शरीरसे पाप करता है, उस शरीरका दुरुपयोग करता है तो फिर उसको मनुष्य-शरीर नहीं मिलेगा
। माता-पिता तो फिर भी बालकको मिठाई दे देते हैं;
क्योंकि बालक नासमझ होता है,
पर जो समझपूर्वक, जानकर
पाप करता है, उसको भगवान् फिर मनुष्य-शरीर नहीं देंगे । इसी तरह जो गर्भपात करते हैं,
उनकी फिर अगले जन्मोंमें सन्तान नहीं होगी ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, अध्याय २) में आता है कि सृष्टिके
आरम्भमें भगवान् श्रीकृष्णकी चिन्मयी शक्ति मूल प्रकृति (श्रीराधा) ने अपने गर्भको
ब्रह्माण्ड-गोलकके अथाह जलमें फेंक दिया । यह देखकर भगवान्ने उसको शाप दे दिया कि
‘आजसे तेरी कोई सन्तान नहीं होगी । इतना ही नहीं,
तेरे अंशसे जो-जो दिव्य स्त्रियों उत्पन्न होंगी,
उनकी भी कोई सन्तान नहीं होगी’[1] ! इसके बाद मूल प्रकृति-देवीकी जीभके अग्रभागसे सरस्वती प्रकट
हुई । फिर कुछ समय बीतनेपर वह मूल प्रकृति दो रूपोंमें प्रकट हो गयी । आधे बायें अंगसे
वह ‘लक्ष्मी’ और आधे दायें अंगसे वह ‘राधा’
हो गयी । भगवान् श्रीकृष्ण भी उस समय दो रूपोंमें प्रकट हो गये
। आधे बायें अंगसे वे ‘चतुर्भुज विष्णु’ और आधे दायें अंगसे वे ‘द्विभुज कृष्ण’
हो गये[2] । तब भगवान् श्रीकृष्णने लक्ष्मी और सरस्वती‒दोनों देवियोंको
विष्णुकी सेवामें उपस्थित होनेकी आज्ञा दी ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
उत्ससर्ज च कोपेन
ब्रह्माण्ड गोलके जले
॥
दृष्ट्वा कृष्णश्च तत्त्यागं हाहाकारं चकार ह ।
शशाप देवीं
देवेशस्तत्थणं च यथोचितम्
॥
यतोऽपत्यं त्वया त्यक्तं
कोपशीले सुनिष्ठुरे ।
भवत्वमनपत्यापि चाद्यप्रभृतिनिश्चितम्
॥
या यास्त्वदंशरूपा च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः ।
अनपत्याश्च ताः सर्वास्तत्समा नित्ययौवनाः ॥
(प्रकृति॰ २ । ५०‒५३)
वामार्द्धाङ्गा च कमला दक्षिणार्द्धा च राधिका
॥
एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव ह ।
दक्षिणार्द्धश्च द्विभुजो वामार्द्धश्च
चतुर्भुजः ॥
(प्रकृति॰ २ । ५६-५७)
|