(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्र‒कुछ
तांत्रिकलोग भूत-प्रेतोंको अपने वशमें करके उनसे अपने घरका, खेतका
काम कराते हैं, तो ऐसा करना उचित
है या अनुचित ?
उत्तर‒किसी भी जीवको परवश करना मनुष्यके लिये उचित नहीं है । हाँ, जैसे किसी मनुष्यको
मजदूरी देकर उससे काम कराते हैं, ऐसे ही भूत-प्रेतोंको खुराक देकर,
उनको प्रसन्न करके उनसे काम करानेमें कोई दोष नहीं है । परन्तु
पारमार्थिक साधनामें लगे हुए साधकको ऐसा नहीं करना चाहिये । ऐसा काम वे ही लोग कर सकते
हैं, जो संसारमें ही रचे-पचे रहना चाहते हैं ।
प्रश्र‒भूत-प्रेतोंको
खुराक कैसे मिलती है ? वे
कैसे तृप्त होते हैं ?
उत्तर‒भूत-प्रेतोंका
शरीर वायुप्रधान होता है; अतः इत्र आदि सुगन्धित वस्तुओंको सूँघकर उनको खुराक मिल जाती
है और वे बड़े प्रसन्न हो जाते हैं । उनके निमित्त किसी ब्राह्मणको अथवा अपनी बहन,
बेटी या भानजीको बढ़िया-बढ़िया मिठायी खिलानेसे उनको खुराक मिल
जाती है ।
दस-बारह वर्षका एक बालक जलमें डूबकर मर गया और प्रेत बन गया
। वह अपनी बहनमें आया करता और अपना दुःख सुनाया करता था । एक दिन वह अपनी बहनमें आकर
बोला कि मैं बहुत भूखा हूँ । तब उसके परिवारवालोंने उसके नामसे एक ब्राह्मणको भोजन
कराया । जब ब्राह्मण भोजन करने लगा, तब जैसे भोजन करते समय मनुष्यका मुख हिलता है,
वैसे ही दूसरे कमरेमें बैठी उस प्रेतकी बहनका भी मुख हिलने लगा
। जब ब्राह्मणने भोजन कर लिया, तब वह प्रेत बहनके मुखसे बोला कि मेरी तृप्ति हो गयी ! अतः प्रेतात्माके
नामसे शुद्ध-पवित्र ब्राह्मणको भोजन करानेसे वह भोजन उसको मिलता है ।
पासमें ही तालाब है,
नदी बह रही है और उसके जलको प्रेत देखते भी हैं,
पर वे उस जलको पी नहीं सकते,
प्यासे ही रहते हैं ! स्नानके बाद प्रेतके नामसे अथवा ‘अज्ञात नामवाले प्रेतात्माओंको जल मिल जाय’‒इस भावसे गीली धोतीको किसी स्थानपर निचोड़ दिया जाय तो प्रेत
उस जलको पी लेते हैं । शौचसे बचा हुआ जल काँटेदार वृक्षपर अथवा आकके पौधेपर डाल दिया
जाय तो उस जलको भी प्रेत पी लेते हैं और तृप्त हो जाते हैं ।
तुलसीदासजी महाराज शौच जाते थे तो बचा हुआ जल प्रतिदिन यों ही
एक काँटेवाले पेड़पर डाल दिया करते थे । उस पेड़में एक प्रेत रहता था जो उस अशुद्ध जलको
पी लेता था । एक दिन वह प्रेत तुलसीदासजीके सामने प्रकट होकर बोला‒मैं बहुत प्यासा
मरता था, तुम्हारे जलसे अब मैं बहुत तृप्त हो गया हूँ । तुम मेरेसे जो
माँगना चाहो, माँग लो । तुलसीदासजी महाराजको भगवद्दर्शनकी लगन लगी हुई थी;
अतः उन्होंने कहा‒मेरेको भगवान् रामके दर्शन करा दो !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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