श्रोता‒एक प्रचलन है कि घरमें कोई मर जाता है तो उसे देवी-देवता
या पितर मानकर उसकी विशेष पूजा करते हैं । यदि कोई काम सिद्ध हो जाता है तो कहते हैं
कि हमारे पितरने कर दिया, और अनिष्ट हो जाता है तो कहते हैं कि हमारी सेवामें कोई कमी रह गयी, इसलिये उन्होंने हमारा अनिष्ट कर दिया । अब प्रश्न यह है कि सब करनेवाले तो भगवान्
ही हैं, फिर पितरोंको ज्यादा महत्त्व देना कहाँतक उचित है ?
स्वामीजी‒पितरोंको ज्यादा महत्व देना ठीक नहीं है । परन्तु पितरोंका श्राद्ध-तर्पण जरूर
करना चाहिये । शास्त्रोंमें रोजाना पितरोंका श्राद्ध-तर्पण करनेकी बात कही गयी है
। रोजाना न कर सको तो कम-से-कम उनकी वार्षिक तिथि तथा पितृपक्षमें तो जरूर ही श्राद्ध-तर्पण
करना चाहिये । घरमें अलगसे पितरोंकी पूजा करनेकी जरूरत नहीं है ।
आप सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाओ और हरदम ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’
ऐसे भगवान्को पुकारो । सिवाय भगवान्के अपना कोई नहीं है ।
भगवान् कभी नाराज नहीं होते, हमेशा कृपा ही करते हैं । जैसे,
माँको गुस्सा भी आ जाय तो भी वह बालकका कभी अनिष्ट नहीं कर
सकती । भगवान् तो माँसे भी बढ़कर हैं । उनसे बढ़कर कोई नहीं है ।
उमा राम सम हित जग माहीं ।
गुरु पितु मातु बंधु
प्रभु नाहीं ॥
(मानस,
किष्किन्धा॰ १२ । १)
‘हे पार्वती ! जगत्में श्रीरामजीके समान हित करनेवाला गुरु,
पिता, माता, बन्धु और स्वामी कोई नहीं है ।’
कई लोग सन्तोंकी, गुरु महाराजकी विशेष कृपा मानते हैं,
पर इसमें प्रायः ठगाई होती है । सच्ची बात बहुत कम है,
ठगाई ज्यादा है । इसलिये भगवान्को मानना ही ठीक है । भगवान्को
जितना मानो, उतना थोड़ा है । आजतक भगवान्की जितनी महिमा कही गयी है,
वह भी थोड़ी है । आप कृपा करके स्वीकार कर लो कि हम भगवान्के
हैं तो निहाल हो जाओगे । परन्तु किसीका चेला बन जाओगे तो मुश्किल हो जायगी ! गुरु बनानेमें बड़ा खतरा है ! गुरु मिल गया तो भाग्य फूट जायगा
! गुरुको रुपया, भेंट मिल जायगी, आप भले ही नरकोंमें जाओ,
उसकी कोई परवाह नहीं !
मैं गुरुकी निन्दा नहीं करता हूँ । मैं रोजाना व्याख्यानमें
गुरुको नमस्कार करता हूँ । परन्तु आजकल पाखण्डका जमाना है । सिवाय ठगीके कुछ नहीं है
। जो कहता है कि चेला बन जाओ,
फिर बतायेंगे, वह बिलकुल ठग है.....बिलकुल ठग है.....बिलकुल ठग है । दुकानदारीके
सिवाय कुछ नहीं है । जो असली सन्त-महात्मा हैं,
उनके हृदयमें उदारता भरी रहती है । वे प्राणिमात्रका कल्याण
चाहते हैं‒‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा॰ ३ । २५ । २१) । वे कल्याणकी बात हरेक आदमीको बतानेके लिये तैयार रहते हैं ।
वे किसीसे कुछ नहीं चाहते, नमस्कार भी नहीं !
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