वास्तवमें हम सब परमात्माके
हैं और यह संसार भी परमात्माका है; परन्तु जब हम इसपर कब्जा करना चाहते
हैं, इसको अपना मान लेते हैं, तब हम इससे बँध जाते हैं । हमारी यह एक धारणा रहती है कि हमारे
अधिकारमें जितनी वस्तुएँ और व्यक्ति आ जाएँगे, उतने हम बड़े बन जाएँगे, उन वस्तुओं और व्यक्तियोंके मालिक बन
जायँगे; परन्तु यह धारणा बिलकुल गलत है । जिन रुपये, परिवार आदिको हम अपना मान लेते हैं, उनके हम पराधीन हो जाते हैं । परवश
हो जाते हैं । वहम तो यह होता है कि हम उनके मालिक बन गये, पर बन जाते है उनके गुलाम‒यह बात खूब समझनेकी है, केवल सुनने-सुनानेकी नहीं है । आप स्वयं
विचार करें । जिन मकानोंको आप अपने मकान मानते हैं, उन मकानोंकी ही आपको चिन्ता होती है । जिन मकानोंको आप अपना नहीं मानते, उनकी चिन्ता आपको नहीं होती । जिस परिवारको आप अपना मानते
हैं, उसके बनने-बिगड़नेका आपपर असर होता है; और जिसको आप अपना नहीं मानते, उसके बनने-बिगड़नेका आपपर असर नहीं होता । ऐसे ही रुपये-पैसे, जमीन-जायदाद आदि वस्तुओंको आप अपनी मान लेते हैं, उनकी जिम्मेवारी, उनकी चिन्ता, उनके संचालन आदिका भार आपपर आ जाता
है । जिनको आप अपना नहीं मानते, उनसे आपका बन्धन नहीं होता । इस युक्तिपर आप विचार करें । संसारमें जो थोड़े-से मकान है, थोड़े-से व्यक्ति हैं, थोड़े-से रुपये (हजार, लाख, करोड़) हैं, उन मकानों, व्यक्तियों और रुपयोमें ही आप बँधे हुए हैं । जिनको आप अपना नहीं मानते, उन मकानों, व्यक्तियों और रुपयोंसे आप बिलकुल मुक्त हैं । अतः संसारसे आपकी ज्यादा मुक्ति तो है ही, थोड़ी-सी मुक्ति बाकी है ! मुक्ति नाम है छूटनेका । जिन रुपयों आदिको आप अपना नहीं मानते, उनसे आप बिलकुल मुक्त हैं । उनसे आप बिलकुल छूटे हुए हैं । जिनमें आपकी ममता नहीं है, उनके हानि-लाभ आदिका आपपर असर नहीं पड़ता अर्थात् उनमें आप सम रहते हैं । वह चाहे सोना हो, चाहे मिट्टी या पत्थर हो, उसके आने-जानेका आपपर कोई असर नहीं पड़ता—‘समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ (गीता ६/८) । इसी प्रकार मान-अपमान और मित्र-शत्रुके पक्षमें भी आपकी समता रहती है, उनका असर आपपर नहीं पड़ता—‘मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ’ (गीता १४/२५) । |