।। श्रीहरिः ।।

                                                                                             




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७७, रविवा
भगवत्प्राप्ति


परमात्मतत्त्वका अनुभव तभी होगा, जब विषयभोग निद्रा हँसी जगतप्रीत बहुत बात’‒ये पाँचों सुहायेंगे नहीं ।

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साधकको भगवत्प्राप्तिमें देरी होनेका कारण यही है कि वह भगवान्‌के वियोगको सहन कर रहा है । यदि उसको भगवान्‌का वियोग असह्य हो जाय तो भगवान्‌के मिलनेमें देरी नहीं होगी ।

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जबतक असत्‌की कामना, आश्रय, भरोसा है, तबतक सत्‌का अनुभव नहीं हो सकता ।

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परमात्मप्राप्ति वास्तवमें सुगम है, पर लगन न होनेके कारण कठिन है ।

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भगवान्‌ क्रियाग्राही नहीं हैं, प्रत्युत भावग्राही हैं‒‘भावग्राही जनार्दनः’ । अतः भगवान्‌ भाव (अनन्यभक्ति)-से ही दर्शन देते हैं, क्रियासे नहीं ।

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अनित्य वस्तुसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर नित्य-तत्त्व स्वतः अनुभवमें आ जाता है ।

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मनुष्यमात्र भगवत्प्राप्तिका अधिकारी है और वह प्रत्येक परिस्थितिमें भगवान्‌को प्राप्त कर सकता है ।

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परमात्माकी प्राप्तिमें देरी नहीं लगती । देरी लगती है‒सम्बन्धजन्य सुखकी इच्छाका त्याग करनेमें ।

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केवल भगवान्‌की इच्छा हो तो भगवान्‌ प्रकट हो जायँगे अथवा कोई भी इच्छा न हो तो भगवान्‌ प्रकट हो जायँगे । अधूरापन नहीं होना चाहिये ।

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सत्‌को जानो चाहे मत जानो, पर जिसको असत्‌ जानते हो, उसका त्याग कर दो तो सत्‌की प्राप्ति हो जायगी ।

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परमात्मप्राप्तिमें मनुष्य जितना स्वतन्त्र है, उतना और किसी कार्यमें स्वतन्त्र नहीं है ।

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परमात्मप्राप्तिके लिये उपायोंकी उतनी जरूरत नहीं है, जितनी भीतरकी लगनकी जरूरत है ।

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भगवान्‌ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी आदिको नहीं मिलते, प्रत्युत ‘भक्त’ को मिलते हैं ।

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धनकी प्राप्तिमें तो क्रियाकी मुख्यता है, पर परमात्माकी प्राप्तिमें लालसाकी मुख्यता है ।

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भगवत्प्राप्ति कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत कृपाका फल है । परन्तु चाहना खुदकी होनी चाहिये ।

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संसार अधूरा है, इसलिये अधूरा ही मिलता है और परमात्मा पूरे हैं, इसलिये पूरे ही मिलते हैं ।

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‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे