परमात्मतत्त्वका अनुभव तभी होगा, जब विषयभोग निद्रा हँसी
जगतप्रीत बहुत बात’‒ये पाँचों सुहायेंगे नहीं । ❇❇❇ ❇❇❇ साधकको भगवत्प्राप्तिमें देरी होनेका कारण
यही है कि वह भगवान्के वियोगको सहन कर रहा है । यदि उसको भगवान्का वियोग असह्य
हो जाय तो भगवान्के मिलनेमें देरी नहीं होगी । ❇❇❇ ❇❇❇ जबतक असत्की कामना, आश्रय, भरोसा है, तबतक
सत्का अनुभव नहीं हो सकता । ❇❇❇ ❇❇❇ परमात्मप्राप्ति वास्तवमें सुगम है, पर लगन न
होनेके कारण कठिन है । ❇❇❇ ❇❇❇ भगवान् क्रियाग्राही
नहीं हैं, प्रत्युत भावग्राही हैं‒‘भावग्राही जनार्दनः’ । अतः भगवान् भाव (अनन्यभक्ति)-से
ही दर्शन देते हैं, क्रियासे नहीं । ❇❇❇ ❇❇❇ अनित्य वस्तुसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर
नित्य-तत्त्व स्वतः अनुभवमें आ जाता है । ❇❇❇ ❇❇❇ मनुष्यमात्र भगवत्प्राप्तिका अधिकारी है और
वह प्रत्येक परिस्थितिमें भगवान्को प्राप्त कर सकता है । ❇❇❇ ❇❇❇ परमात्माकी प्राप्तिमें देरी नहीं लगती ।
देरी लगती है‒सम्बन्धजन्य सुखकी इच्छाका त्याग करनेमें । ❇❇❇ ❇❇❇ केवल भगवान्की इच्छा हो तो भगवान् प्रकट हो
जायँगे अथवा कोई भी इच्छा न हो तो भगवान् प्रकट हो जायँगे । अधूरापन नहीं होना
चाहिये । ❇❇❇ ❇❇❇ सत्को जानो चाहे मत जानो, पर जिसको असत्
जानते हो, उसका त्याग कर दो तो सत्की प्राप्ति हो जायगी । ❇❇❇ ❇❇❇ परमात्मप्राप्तिमें मनुष्य जितना स्वतन्त्र
है, उतना और किसी कार्यमें स्वतन्त्र नहीं है । ❇❇❇ ❇❇❇ परमात्मप्राप्तिके लिये उपायोंकी उतनी जरूरत नहीं
है, जितनी भीतरकी लगनकी जरूरत है । ❇❇❇ ❇❇❇ भगवान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र,
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी आदिको नहीं मिलते, प्रत्युत ‘भक्त’ को
मिलते हैं । ❇❇❇ ❇❇❇ धनकी प्राप्तिमें तो क्रियाकी मुख्यता है, पर
परमात्माकी प्राप्तिमें लालसाकी मुख्यता है । ❇❇❇ ❇❇❇ भगवत्प्राप्ति कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत
कृपाका फल है । परन्तु चाहना खुदकी होनी चाहिये । ❇❇❇ ❇❇❇ संसार अधूरा है, इसलिये अधूरा ही मिलता है और
परमात्मा पूरे हैं, इसलिये पूरे ही मिलते हैं । ❇❇❇ ❇❇❇
‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे |