।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                          




           आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण तृतीया वि.सं.२०७७, शनिवा

अमृतबिन्दु


जिसके भीतर कोई भी इच्छा नहीं होती, उसकी आवश्यकताओंकी पूर्ति प्रकृति स्वयं करती है ।

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जो सदा हमारे साथ नहीं रहेगा और हम सदा जिसके साथ नहीं रहेंगे, उसको प्राप्त करनेकी इच्छा करना अथवा उससे सुख लेना मूर्खता है, पतनका कारण है ।

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सुखकी इच्छासे सुख नहीं मिलता‒यह नियम है ।

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चाहे साधु बनो, चाहे गृहस्थ बनो, जबतक कामना (कुछ पानेकी इच्छा) रहेगी, तबतक शान्ति नहीं मिल सकती ।

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अगर शान्ति चाहते हो तो ‘यों होना चाहिये, यों नहीं होना चाहिये’‒इसको छोड़ दो और ‘जो भगवान्‌ चाहें, वही होना चाहिये’‒इसको स्वीकार कर लो ।

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कामनापूर्वक किया गया सब कार्य असत्‌ है, उसका फल नाशवान्‌ होगा ।

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कुछ भी चाहना गुलामी है और कुछ नहीं चाहना आजादी है ।

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वस्तुके न मिलनेसे हम अभागे नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्‌के अंश होकर भी हम नाशवान्‌ वस्तुकी इच्छा करते हैं‒यही हमारा अभागापन है ।

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सुखकी इच्छासे ही द्वैत होता है । सुखकी इच्छा न हो तो द्वैत है ही नहीं ।

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जबतक शरीरको अपना मानते रहेंगे, तबतक हमारी कामना नहीं मिट सकती ।

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विचार करें, कामनाकी पूर्ति होनेपर भी हम वही रहते हैं और अपूर्ति होनेपर भी हम वही रहते हैं, फिर कामनाकी पूर्तिसे हमें क्या मिला और अपूर्तिसे हमारी क्या हानि हुई ? हमारेमें क्या फर्क पड़ा ?

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जैसे गायका दूध गायके लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंके लिये ही हैं ऐसे ही भगवान्‌की कृपा भगवान्‌के लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरों (हम सभी)-के लिये ही है ।

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अगर भगवान्‌की दया चाहते हो  तो अपनेसे छोटोंपर दया करो, तब भगवान्‌ दया करेंगे । दया चाहते हो, पर करते नहीं‒यह अन्याय है, अपने ज्ञानका तिरस्कार है ।

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जो गीता अर्जुनको भी दुबारा सुननेको नहीं मिली, वह हमें प्रतिदिन पढ़ने-सुननेको मिल रही है‒यह भगवान्‌की कितनी विलक्षण कृपा है ।

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आजतक जितने महात्मा हुए हैं, वे भगवत्कृपासे जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ तथा भगवत्प्रेमी हुए हैं, अपने उद्योगसे नहीं ।

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स्वतःसिद्ध परमपदकी प्राप्ति अपने कर्मोंसे, अपने पुरुषार्थसे अथवा अपने साधनसे नहीं होती । यह तो केवल भगवत्कृपासे ही होती है ।

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‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे