एक कथा आती है । एक सज्जनने एकादशीका व्रत किया । द्वादशीके
दिन किसीको भोजन कराकर पारणा करना था, पर कोई मिला नहीं । वर्षा हो रही थी ।
ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आखिर एक बूढ़े साधु मिल गये । उनको भोजनके लिये घर बुलाया । उनको
बैठाकर उनके सामने पत्तल परोसी तो वे चट खाने लग गये । उन सज्जनने कहा कि ‘महाराज,
आपने भगवान्को भोग तो लगाया ही नहीं !’ वह साधु बोला कि ‘ भगवान् क्या होता है ?
तुम तो मूर्ख हो, समझते नहीं ।’ यह सुनते ही उन सज्जनने पत्तल खींच ली और बोला कि
‘भगवान् कुछ नहीं होता तो तुम कौन होते हो ? हम भगवान्के नाते ही तो आपको भोजन
कराते हैं ।’ उसी समय आकाशवाणी हुई कि ‘अरे ! मेरी निन्दा करते-करते यह साधु बूढ़ा
हो गया, पर अभीतक मैं इसको भोजन दे रहा हूँ, तू एक समय भी भोजन नहीं दे सकता और
मेरा भक्त कहलाता है ! अगर मैं भोजन न दूँ तो यह कितने दिन जीये ?’ आकाशवाणी सुनकर
उनको बड़ी शर्म आयी और फिर उस साधुसे माफ़ी माँगकर उसको प्रेमपूर्वक भोजन कराया । ऐसो को उदार जग माहीं । बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं ॥ (विनयपत्रिका १६२) ऐसे परम उदार भगवान्के रहते हुए हम दुःख पा रहे
हैं और गुरुजी हमें सुखी कर देंगे, हमारा उद्धार कर देंगे‒यह कितनी ठगाई है ! अपने
उद्धारके लिये हम खुद तैयार हो जायँ, बस, इतनी ही जरूरत है । भगवान् महान् दयालु हैं । वे सबके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध
करते हैं तो क्या कल्याणका प्रबन्ध नहीं करेंगे ? इसलिये आप
सच्चे हृदयसे अपने कल्याणकी चाहना बढ़ाओ और भगवान्से प्रार्थना
करो कि ‘हे नाथ ! मेरा कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय । मैं नहीं जानता कि कल्याण
क्या होता है, पर मैं किसी भी जगह फँसूँ नहीं, सदाके लिये सुखी हो जाऊँ । हे नाथ !
मैं क्या करूँ ?’ भगवान् सच्ची प्रार्थना अवश्य सुनते हैं‒ सच्चे हृदयसे प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है । तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है ॥ हमें अपने कल्याणकी जितनी चिन्ता है, उससे ज्यादा भगवान्को
और सन्त-महात्माओंको चिन्ता है ! बच्चेको अपनी जितनी चिन्ता होती है, उससे ज्यादा माँको चिन्ता होती है, पर बच्चा इस बातको समझता
नहीं । हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह
तुम्हार सेवक असुरारी ॥ (मानस, उत्तरकाण्ड ४७/३) जो सच्चे हृदयसे भगवान्की तरफ चलता है, उसकी सहायताके
लिये सभी सन्त-महात्मा उत्कण्ठित रहते हैं । सन्तोंके हृदयमें सबके कल्याणके लिये अपार दया भरी हुई
रहती है । बच्चा भूखा हो तो उसको अन्न देनेका भाव किसके मनमें नहीं आता ? अगर कोई सच्चे हृदयसे अपना कल्याण चाहते है तो भगवान् अवश्य
उसका कल्याण करते हैं । भगवान् समान हमारा हित करनेवाला गुरु भी नहीं है‒ उमा राम सम हित जग माहीं । गुरु पितु
मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥ सुर नर मुनि सब कै यह रीती । स्वारथ
लागि करहिं सब प्रीती ॥ (मानस, किष्किन्धाकाण्ड १२/१)
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! |