।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७३, रविवार
हरितालिका-व्रत, चन्द्रदर्शन निषिद्ध
सन्तानका कर्तव्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒माता-पिताने हमें जन्म देकर संसार-बन्धनमें डाल दिया, आफतमें डाल दिया; फिर हमारेपर उनका ऋण कैसे ?

उत्तर‒यह बात बिलकुल गलत है । माता-पिताने तो मनुष्यशरीर देकर संसार-बन्धनसे, जन्म-मरणसे छूटनेके लिये बड़ा भारी अवसर दिया है । माता-पिताने पुत्रको न तो बन्धनमें डाला है और न उनका पुत्रको बन्धनमें, आफतमें डालनेका उद्देश्य ही है । वे प्रत्येक अवस्थामें, जाने-अनजाने सदा पुत्रका भला ही चाहते हैं और भला ही करते हैं । परन्तु हम पदार्थोंमें, भोगोंमें, परिस्थितियोंमें, व्यक्तियोंमें ममता करके उनसे सुख भोगनेकी इच्छासे ही बन्धनमें, आफतमें पड़ते हैं । तात्पर्य है कि अपने सुखकी इच्छा, सुखका भोग, सुखकी आशाका त्याग करके यदि पुत्र माता-पिताकी सेवाको परमात्मप्राप्तिका साधन मानकर तत्परतासे उनकी सेवा करे तो उसको संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ।

पुत्रको माता-पिताके कर्तव्यकी तरफ दृष्टि डालनी ही नहीं चाहिये । उसे तो केवल अपना ही कर्तव्य देखना चाहिये । जो अपने कर्तव्यको न देखकर माता-पिताके कर्तव्यको देखता है वह अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है अर्थात् कर्तव्य-पालनसे पतित हो जाता है । किसी भी शास्त्रमें किसीको भी माता-पिताके, गुरुजनोंके कर्तव्यको देखनेका अधिकार नहीं दिया गया है । पहले मनुष्य किसीके कर्तव्यको नहीं देखते थे, प्रत्युत अपना कर्तव्य देखते थे, अपने कर्तव्यका पालन करते थे, इसीसे वे जीवन्मुक्त, भगवद्भक्त होते थे । अगर वे दूसरोंका कर्तव्य देखते, अपना ही स्वार्थ देखते तो आजकी तरह ही मनुष्य-समुदाय होता । जिन्होंने केवल अपना कर्तव्य देखा है, उसका पालन किया है, उन सन्त-महात्माओं, धर्मात्माओंको भारतकी जनता कितनी आदरदृष्टिसे देखती है ! अतः मनुष्यको अपने कर्तव्यका कभी परित्याग नहीं करना चाहिये ।

कर्तव्यके विषयमें एक मार्मिक बात है कि केवल कर्तव्य समझकर उसका पालन करनेसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है; जैसे‒जो माता-पिताकी सेवा केवल अपना कर्तव्य समझकर करते हैं, उनका माता-पितासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, उनका माता-पिताके चरणोंमें प्रेम नहीं होता । परन्तु जो अपने शरीरको माता-पिताका ही मानकर तत्परतासे आदर और प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करते हैं, उनका माता-पितामें प्रेम हो जाता है । जैसे मनुष्य भोजन करनेको, जल पीनेको अपना कर्तव्य नहीं मानते, प्रत्युत प्राणोंका आधार मानते हैं, ऐसे ही माता-पिताकी सेवाको प्राणोंका आधार मानना चाहिये । उनकी सेवाको ही अपना जीवन मानना चाहिये, अपना खास काम मानना चाहिये‒

सेवहि लखनु  सीय  रधुबीरहि ।
जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ॥
                                 (मानस, अयोध्या १४२ । २)

इस प्रकार माता-पिताकी सेवाको अपने प्राणोंका, जीवनका आधार मानकर करनेसे ‘मैं’ और मेरा’-पन मिट जाता है; क्योंकि शरीरको माता-पिताका ही मानकर उनकी सेवामें अर्पण करनेसे, शरीरपर अपना कोई अधिकार न माननेसे अहंता-ममता नहीं रहती ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, शनिवार
सन्तानका कर्तव्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है‒

अनुचित उचित बिचारू तजि जे पालहिं पितु बैन ।
ते भाजन सुख  सुजस  के  बसहिं  अमरपति  ऐन ॥

तात्पर्य है कि पुत्रको श्रीरामकी तरह अपना आचरण बनाना चाहिये और यह सोचना चाहिये कि इस परिस्थितिमें, इस अवस्थामें, इस समय मेरी जगह श्रीराम होते तो क्या करते । इस तरह उनका ध्यान करके काम करना चाहिये ।

पुत्र माता-पिताकी कितनी ही सेवा करे तो भी वह माता-पिताके ऋणको चुका नहीं सकता । कारण कि जिस मनुष्य-शरीरसे अपना कल्याण हो सकता है, जीवन्मुक्ति मिल सकती है, भगवत्प्रेम प्राप्त हो सकता है, भगवान्‌का मुकुटमणि बन जाय‒इतना ऊँचा पद प्राप्त हो सकता है, वह मनुष्य-शरीर हमें माता-पिताने दिया है । उसका बदला पुत्र कैसे चुका सकता है ? नहीं चुका सकता ।

प्रश्न‒माता-पिताकी सेवाका तात्पर्य क्या है ?

उत्तर‒माता-पिताकी सेवाका तात्पर्य कृतज्ञतामें है । माता-पिताने बच्चेके लिये जो कष्ट सहे हैं उसका पुत्रपर ऋण है । उस ऋणको पुत्र कभी उतार नहीं सकता । माँने पुत्रकी जितनी सेवा की है, उतनी सेवा पुत्र कर ही नहीं सकता । अगर कोई पुत्र यह कहता है कि मैं अपनी चमड़ीसे माँके लिये जूती बना दूँ तो उससे हम पूछते हैं कि यह चमड़ी तुम कहाँसे लाये ? यह भी तो माँने ही दी है ! उसी चमड़ीकी जूती बनाकर माँको दे दी तो कौन-सा बड़ा काम किया ? केवल देनेका अभिमान ही किया है ! ऐसे ही शरीर खास पिताका अंश है । पिताके उद्योगसे ही पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बनता है, उसको रोटी-कपड़ा मिलता है । इसका बदला कैसे चुकाया जा सकता है ! अतः केवल माता-पिताकी सेवा करनेसे, उनकी प्रसन्नता लेनेसे वह ऋण अदा तो नहीं होता, पर माफ हो जाता है ।

प्रश्न‒मेरा ऐसा पुत्र हो जाय, उसका कल्याण हो जाय‒इस उद्देश्यसे माँ-बापने थोड़े ही संग किया ! उन्होंने तो अपने सुखके लिये संग किया । हम पैदा हो गये तो हमारेपर उनका ऋण कैसे ?

उत्तर‒केवल सुखासक्तिसे संग करनेवाले स्त्री-पुरुषके प्रायः श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न नहीं होते । जो स्त्री-पुरुष शास्त्रके आज्ञानुसार केवल पितृ-ऋणसे मुक्त होनेके लिये ही सन्तान उत्पन्न करते हैं, अपने सुखका उद्देश्य नहीं रखते, वे ही असली माता-पिता हैं । परन्तु पुत्रके लिये तो कैसे हों, किसी भी तरहके माता-पिता हों, वे पूज्य ही हैं; क्योंकि उन्होंने मानव-शरीर देकर पुत्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी बना दिया ! उपनिषदोंमें आता है कि विद्यार्थी जब विद्या पढ़कर, स्नातक होकर गृहस्थमें प्रवेश करनेके लिये गुरुजीसे आज्ञा लेता, तब गुरुजी उसको आज्ञा देते कि ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अर्थात् तुम माता-पिताको साक्षात् ईश्वररूप मानकर उनकी आज्ञाका पालन करो; उनकी सेवा करो । यह ऋषियोंकी दीक्षान्त शिक्षा है और इसके पालनमें ही हमारा कल्याण है । अतः पुत्रको जिनसे शरीर मिला है, उनका कृतज्ञ होना ही चाहिये ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
सन्तानका कर्तव्य


माता च कमला देवी   पिता देवो जनार्दनः ।
बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥
वास्तवमें भगवान् लक्ष्मी-नारायण ही सबके माता-पिता हैं । इस दृष्टिसे संसारमें हमारे जो माता-पिता हैं, वे साक्षात् लक्ष्मी-नारायणके ही स्वरूप हैं । अतः पुत्रका कर्तव्य है कि वह माता-पिताकी ही सेवामें लगा रहे । असली पुत्र वे होते हैं, जो शरीर आदिको अपना नहीं मानते, प्रत्युत माता-पिताका ही मानते हैं; क्योंकि शरीर माता-पितासे ही पैदा हुआ है । शरीर चाहे स्थूल, सूक्ष्म अथवा कारण ही क्यों न हो, उन सबपर वे माता-पिताका ही अधिकार मानते हैं, अपना नहीं । मनुजीने भी कहा है कि पुत्र तीर्थ, व्रत, भजन, स्मरण आदि जो कुछ शुभ कार्य करे, वह सब माता-पिताके ही अर्पण करे[*] । माता-पिता जीवित हों तो तत्परतासे उनकी आज्ञाका पालन करे, उनके चित्तकी प्रसन्नता ले और मरनेके बाद उनको पिण्ड-पानी दे, श्राद्ध-तर्पण करे, उनके नामसे तीर्थ, व्रत आदि करे । ऐसा करनेसे उनका आशीर्वाद मिलता है, जिससे लोक-परलोक दोनों सुधरते हैं ।

श्रीभीष्मजीने पिताकी सुख-सुविधा, प्रसन्नताके लिये अपनी सुख-सुविधाका त्याग कर दिया और आबाल ब्रह्मचारी रहनेकी प्रतिज्ञा ले ली । उन्होंने कनक-कामिनी दोनोंका त्याग कर दिया । इससे प्रसन्न होकर पिताने उनको इच्छामृत्युका वरदान दिया । वे इच्छामृत्यु हो गये कि जब चाहें, तभी मरें । उनको ऐसी सामर्थ्य पिताकी सेवासे प्राप्त हो गयी । श्रीरामने पिताकी आज्ञाका पालन करनेके लिये राज्य, वैभव, सुख-आराम आदि सबका परित्याग कर दिया । वाल्मीकि-रामायणमें श्रीरामने स्वयं कहा है कि पिताजीके कहनेपर मैं आगमें भी प्रवेश कर सकता हूँ, विषका भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्रमें भी कूद सकता हूँ, पर मैं पिताकी आज्ञा नहीं टाल सकता[†] । श्रीराम विचारक नहीं थे, आज्ञापालक थे अर्थात् पिताजीने क्या कहा है, कहाँ कहा है, कब कहा है, किस अवस्थामें और किस परिस्थितिमें कहा है आदिका विचार न करके उन्होंने पिताकी आज्ञाका पालन किया और वनवासमें चले गये । अतः माता-पिताके आज्ञा-पालनमें श्रीराम सबके आदर्श हुए ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे




[*] तेषामनुपरोधेन  पारत्र्यं यद्यदाचरेत् ।
   तत्तन्निवेदयेत्तेभ्यो मनोवचनकर्मभिः ॥
                                 (मनुस्मृति २ । २३६)

[†] अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ।
   भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं  पतेयमपि चार्णवे ॥
                          (वाल्मीकि अयोध्या १८ । २८-२९)

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद अमावस्या, वि.सं.२०७३, गुरुवार
कुशोत्पाटिनी अमावस्या
गीतामें अवतारवाद


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्नवेदव्यासजी आदि कारकपुरुषोंको भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः दोंनोंमें क्या अन्तर है ?

उत्तरवेदव्यासजी आदि कारकपुरुष भगवान्‌के कलावतार, अंशावतार कहलाते हैं । वे भगवान्‌की इच्छासे ही यहाँ अवतार लेते हैं । अवतार लेकर वे धर्मकी स्थापना और साधु पुरुषोंकी रक्षा तो करते हैं, पर दुष्टोंका विनाश नहीं करते । कारण कि दुष्टोंके विनाशका काम भगवान्‌का ही है, कारकपुरुषोंका नहीं ।

आजकल अपनेमें कुछ विशेषता देखकर लोग अपनेको भगवान् सिद्ध करने लगते हैं और नामके साथ ‘भगवान’ शब्द लगाने लगते हैं‒यह कोरा पाखण्ड ही है । अपनेको भगवान् कहकर वे अपनेको पुजवाना चाहते हैं, अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये लोगोंको ठगना चाहते हैं । मनुष्योंको ऐसे नकली भगवानोंके‌ चक्करमें पड़कर अपना पतन नहीं करना चाहिये, प्रत्युत ऐसे भगवानोंसे सदा दूर ही रहना चाहिये ।

किसी सम्प्रदायको माननेवाले मनुष्य अपनी श्रद्धा-भक्तिसे सम्प्रदायके मूल पुरुष-(आचार्य-) को भी अवतारी भगवान् कह देते है; पर वास्तवमें वे भगवान् नहीं होते । वे आचार्य मनुष्योंको भगवान्‌की तरफ लगाते हैं, उन्मार्गसे बचाकर सन्मार्गमें लगाते हैं, इसलिये वे उस सम्प्रदायके लिये भगवान्‌से भी अधिक पूजनीय हो सकते हैं [*], पर भगवान् नहीं हो सकते ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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भगवान् हृदयमें ही नहीं, प्रत्युत दीखनेवाले समस्त संसारके कण-कणमें विद्यमान हैं । ऐसे सर्वत्र विद्यमान परमात्माको जब हम सच्चे हृदयसे देखना चाहेंगे, तभी वे दीखेंगे । यदि हम संसारको देखना चाहेंगे तो भगवान् बीचमें नहीं आयेंगे, संसार ही दीखेगा । हम संसारको देखना नहीं चाहते, उससे हमें कुछ भी नहीं लेना है, न उसमें राग करना है न द्वेष, हमें तो केवल भगवान्‌से प्रयोजन है‒

इस भावसे हम एक भगवान्‌से ही घनिष्ठता कर लें । भगवान् हमारी बात सुनें या न सुनें, मानें या न मानें, हमें अपना लें या ठुकरा दें‒इसकी कोई परवाह न करते हुए हम भगवान्‌से अपना अटूट सम्बन्ध (जो कि नित्य है) जोड़ लें[†] । जैसे माता पार्वतीने कहा था‒

जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न  त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ  न  नारद  कर उपदेसू ।
आपु कहहिं सत  बार  महेसू ॥
                                 (मानस, बाल ८१ । ३)

पार्वतीके मनमें यह भाव था कि शिवजीमें ऐसी शक्ति ही नहीं है कि वे मुझे स्वीकार न करें । इसी प्रकार हम सबका सम्बन्ध भगवान्‌के साथ है । हम भगवान्‌से विमुख भले ही हो जायँ, पर भगवान् हमसे विमुख कभी हुए नहीं, हो सकते नहीं । हमारा त्याग करनेकी उनमें शक्ति नहीं है ।

(‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे)


[*] मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम कर दासा ॥
  राम सिंधु घन  सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि  संत   समीरा ॥  
                                        (रामचरितमानस ७ । १२० । ८-९)

[†] वास्तवमें भगवान्‌के साथ हमारा सदासे ही अटूट सम्बन्ध है । परन्तु भगवान्‌से विमुख हो जानेके कारण हमें उस सम्बन्धका अनुभव नहीं होता ।

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