।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
सत्संगकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
         सत्संगमें व्यापार एक ही चलता है, भगवान्‌की बात । उसीको कहना, सुनना, समझना, विचार करना, चिन्तन करना । भगवान्‌ जिसपर कृपा करते हैं, उसको सत्संग देते हैं । सत्संग दिया तो समझो भगवान्‌के खोजनेकी बढ़िया चीज मिल गयी । जो भगवान्‌के प्यारे होते हैं, वे भगवान्‌के भीतर रहते हैं । यह हृदयका धन है । माता-पिता जिस बालकपर ज्यादा स्नेह रखते हैं, उसको अपनी पूँजी बता देते हैं कि बेटा, देखो यह धन है । ऐसे ही भगवान्‌ जब बहुत कृपा करते हैं तो अपने खजानेकी चीज (पूँजी) सन्त-महात्माओंको देते हैं‒लो बेटा, यह धन हमारे पास है ।

         सत्संग मिल जाय तो समझना चाहिये कि हमारा उद्धार करनेकी भगवान्‌के मनमें विशेषतासे आ गयी; नहीं तो सत्संग क्यों दिया ? हम तो ऐसे ही जन्मते-मरते रहते, यह अडंगा क्यों लगाया ? यह तो कल्याण करनेके लिये लगाया है । जिसे सत्संग मिल गया तो उसे यह समझना चाहिये कि भगवान्‌ने उसे निमन्त्रण दे दिया कि आ जाओ । ठाकुरजी बुलाते हैं, अपने तो प्रेमसे सत्संग करो, भजन-स्मरण करो, जप करो । सत्संग करनेमें सब स्वतन्त्र हैं । सत्‌ परमात्मा सब जगह मौजूद है । वह परमात्मा मेरा है और मैं उसका हूँ‒ऐसा मानकर सत्संग करे तो वह निहाल हो जाय ।

        सत्संग कल्पद्रुम है । सत्संग अनन्त जन्मोंके पापोंको नष्ट-भ्रष्ट कर देता है । जहाँ सत्‌की तरफ गया कि असत्‌ नष्ट हुआ । असत्‌ तो बेचारा नष्ट ही होता है । जीवित रहता ही नहीं । इसने पकड़ लिया असत्‌को । अगर यह सत्‌की तरफ जायगा तो असत्‌ तो खत्म होगा ही । सत्संग अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर कर देता है । महान्‌ परमानन्द-पदवीको दे देता है । यह परमानन्द-पदवी दान करता है । कितनी विलक्षण बात है ! सत्संग क्या नहीं करता ? सत्संग सब कुछ करता है । ‘प्रसूते सद्‌बुद्धिम् ।’ सत्संग श्रेष्ठ बुद्धि पैदा करता है । बुद्धि शुद्ध हो जाती है । गोस्वामीजी महाराज लिखते हैं‒
मज्जन फल    पखिय ततकाला ।
काक होहिं पिक बकउ मराला ॥
                                       (मानस १/२/१)
       साधु-समाजरूपी प्रयागमें डुबकी लगानेसे तत्काल फल मिलता है । कौआ कोयल बन जाता है, बगुला हंस बन जाता है अर्थात्‌ सत्संग करनेसे रंग नहीं बदलता, ढंग बदला जाता है । जो वाणी कौआकी तरह है, वह कोयलकी तरह हो जाती है । जो बगुला होता है, वह हंसकी तरह नीर-क्षीर विवेक करने लगता है । सत्संगसे आचरण और विवेक तत्काल बदल जाते हैं । सत्संग मिल जाय तो ये बदल जाते हैं अगर नहीं बदले तो, या तो सत्संग नहीं मिला या सत्संगमें आप नहीं गये । दोनोंके मिलनेसे ही काम बनता है । पारस लोहेको सोना बना दे, अगर मिले तब तो, पर बीचमें पत्ता रख दिया जाय तो फिर कुछ नहीं बननेका ।

         भगवान्‌के प्रति व सन्त-महात्माओंके प्रति निष्काम-भावसे प्रेम करो । भगवान्‌ मीठे लगें, प्यारे लगें, अच्छे लगें । क्यों लगें ? क्योंकि वे मेरे हैं । बच्चेको माँ अच्छी लगती है । क्यों अच्छी लगती है ? क्योंकि मेरी माँ है । ऐसे ही भगवान्‌के साथ अपनापन रहे, तो यह सत्संग होता है । भगवान्‌ हमारे हैं, हम भगवान्‌के हैं । कैसी बढ़िया बात है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
वरूथिनी एकादशी-व्रत (वैष्णव)
सत्संगकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
        मनमें ईर्ष्या, राग, द्वेष आदि दोष भरे हुए हैं । बहुत-से भाई-बहन इस बातको जानते ही नहीं है और जो जानते हैं वे विशेष खयाल नहीं करते । कई खयाल करके छोड़ना भी चाहते हैं, लेकिन इसमें सुख लेते रहते हैं । इस कारण राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि छूटते नहीं, क्योंकि असत्‌का संग रहता है ।

         सत्‌का संग (सत्संग) मिल जाय तो आदमी निहाल हो जाय । जहाँ सत्‌का संग हुआ, वह निहाल हुआ । कारण क्या है ? परमात्मा सत्‌ हैं । बीचमें जितना-जितना असत्‌का सम्बन्ध मान रखा है, वही बाधा है ।

         जैसे कल्पवृक्षके नीचे जानेसे सब काम सिद्ध होते हैं, वैसे ही सत्संग करनेसे सब काम सिद्ध होते हैं । अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष‒चारों पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं । तो क्या सत्संगसे धन मिल जाता है ? कहते हैं कि सत्संगसे बड़ा विलक्षण धन मिलता है । रुपया मिलनेसे तृष्णा जागृत होती है और सत्संग करनेसे तृष्णा मिट जाती है । रुपयोंकी जरूरत ही नहीं रहती ।
गंगा पापं शशी तापं   दैन्यं कल्पतरुर्हरेत् ।
पापं तापं तथा दैन्यं सद्यः साधुसमागमः ॥

         गंगाजीमें स्नान करनेसे पाप दूर हो जाते हैं; पूर्णिमाके दिन चन्द्रमा पूरा उदय होता है, उस दिन तपत (गरमी) शान्त हो जाती है; कल्पवृक्षके नीचे बैठनेसे दरिद्रता दूर हो जाती है । पर सत्संगसे तीनों बातें हो जाती हैं‒पाप नष्ट होते हैं, भीतरी ताप मिट जाता है और संसारकी दरिद्रता दूर हो जाती है ।
चाह गई चिन्ता मिटी,       मनुआ बेपरवाह ।
जिनको कछू न चाहिए, सो साहन पतिशाह ॥

सत्संगसे हृदयकी चाहना भी मिट जाती है । यह बात एकदम सच्ची है, सत्संग करनेवाले भाई-बहन तो इस बातको जानते हैं । बिलकुल ठीक बात है, सत्संगसे हृदयकी जलन दूर हो जाती है ।

        मनुष्य चाहता है कि ऐसे हो जाय, वैसे हो जाय तो ऐसी बात आती है कि‒
मना मनोरथ छोड़ दे    तेरा किया न होय ।
पानी में घी निपजे तो सूखी खाय न कोय ॥
*** ***
यद्भावि न तद्भावि   भावि चेन्न तदन्यथा ।
इति चिन्ताविषघ्नोऽयमगदः किं न पीयते ॥

         जो नहीं होना है, वह नहीं होगा और जो होनेवाला है वह टल नहीं सकता, होकर रहेगा फिर ऐसा क्यों आग्रह कि यह होना चाहिये, यह नहीं होना चाहिये । बस हाँ-में-हाँ मिला दें । सत्संग भी एक कला है । सत्संगमें कला मिलती है, दुःखोंसे पार होनेकी । जैसे समुद्रमें डूबनेवालेको तैरनेकी कला हाथ लग जाय, ऐसे सत्संगमें युक्ति मिल जाय तो निहाल हो जाय ।

सत्संगमें उत्तम विचार मिलते हैं । ज्ञानमार्गमें तो यहाँतक बताया है‒
धन किस लिए है चाहता, तू आप मालामाल है ।
सिक्के सभी जिससे बनें,   तू वह महा टकसाल है ॥

         उस धनके आगे तू इस धनको क्यों चाहता है ? धन-ही-धन है । परमात्मा-ही-परमात्मा है; लबालब भरा हुआ है । उस धनसे धन्य हो जाय । परमात्माका, सत्‌का दर्शन‒यह सत्संग करा देता है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, रविवार
वरूथिनी एकादशी-व्रत (स्मार्त), श्रीवल्लभाचार्य-जयन्ती
वैष्णव एकादशी-व्रत कल है
सत्संगकी महिमा


प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।
                                   (मानस ३/३४/४)
           सन्त-महात्माओंका संग पहली भक्ति है ।
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी ।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
                                (मानस ७/४४/३)
           भक्ति स्वतन्त्र है, सम्पूर्ण सुखोंकी खान है । कहते हैं‒
सतसंगत    मुद      मंगल    मूला ।
सोई फल सिधि सब साधन फूला ॥
                                        (मानस १/२/४)
          सम्पूर्ण मंगलोंकी मूल सत्संगति है । वृक्षमें पहिले मूल होता है और अन्तिम लक्ष्य फल होता है । सत्संगति मूल भी है और फल भी है । जितने अन्य साधन हैं सब फूल-पत्ती हैं, जो मूल और फलके बीचमें रहनेवाली चीजें हैं । सत्संगतिमें ही सब साधन आ जाते हैं । इसलिये सत्संगकी बड़ी भारी महिमा है । सुन्दरदासजी महाराज कहते हैं‒
सन्त समागम करिये भाई ।
यामें बैठो  सब मिल आई
           सन्त-समागम करना चाहिये । यह नौकाकी तरह है, इसमें बैठकर पार हो जायेंगे । सत्संग चन्दनकी तरह पवित्र बना दे और पारसरूपी सत्संगसे कंचन-जैसा हो जाय‒ऐसा सत्संग है । आगे सुन्दरदासजी महाराज फिर कहते हैं‒
और उपाय नहीं तिरने का, सुन्दर काढहि राम दुहाई ।
         रामजीकी सौगन्द दे दी कि कल्याणका और कोई उपाय नहीं है । यह अचूक उपाय है । इसलिये सत्संगमें जाकर बैठ जाएँ तो निहाल हो जायें । सत्‌का संग करो । जहाँ भगवान्‌की चर्चा हो, सत्‌-चर्चा हो, सत्‌-चिन्तन हो, सत्कर्म हो और सत्संग हो तो सत्‌के साथ सम्बन्ध हो जाय । बस, इससे निहाल हो जाय जीव ।

        जीवको जितने दुःख आते हैं, सब असत्‌के संगसे आते हैं और अविनाशीका संग करते ही स्वतः निहाल हो जाता है, क्योंकि वह भगवान्‌का अंश है ।
ईश्वर अंस     जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
                                     (मानस ७/११६/१)
           अतः सत्संगसे, सत्‌का प्रेम होनेसे सत्‌ प्राप्त हो जाता है । सत्संग मिल जाय, परमात्माका संग मिल जाय तो निहाल हो जाय । सत्‌से जहाँ सम्बन्ध होता है, वह सत्संग है । भगवान्‌के साथ जो संग है, वह सत्संग है । असली संग होता है असत्‌के त्यागसे । वैसे असत्‌के द्वारा भी सत्संगमें सहायता होती है, जैसे सत्‌-चर्चा करते हैं तो बिना वाणीसे कैसे करें ? सत्कर्म करते हैं तो बिना बाहरी क्रियासे सत्कर्म कैसे करें ? सत्‌-चिन्तन करते हैं तो मनके बिना कैसे करें ? पर सत्संगमें दूसरा नहीं है; अपने-आपहीमें मिल जाय, तल्लीन हो जाय । सत्संग, सत्‌-चिन्तन, सत्कर्म, सत्‌-चर्चा और सद्‌ग्रन्थोंका अवलोकन ‒इन सबका उद्देश्य सत्संग है । सत्‌की प्राप्तिके लिये असत्‌को दूर कर दे तो सत्संगका उद्देश्य पूरा हो जाता है ।

           ‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।’ असत्‌से विमुख होनेपर सत्‌का संग हो जाता है । राग, द्वेष, इर्षा आदिका जो कूड़ा-करकट भीतरमें भरा है, यह सत्संग नहीं होने देता । ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य चाहे तो इनका त्याग कर सकता है; परन्तु फिर भी इसे कठिनता मालूम देती है; कबतक ? जबतक पक्का विचार न हो जाय । पक्का विचार करनेपर यह कठिनता नहीं रहती । चाहे जो हो, हमें तो इधर ही चलना है, पक्का विचार हो जाय, फिर सुगमता हो जाती है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब बहुत आग्रह किया, तब हनुमान्‌जी वहाँसे चले गये और छतपर जाकर बैठ गये । वहाँ बैठकर उन्होंने लगातार चुटकी बजाना शुरू कर दिया; क्योंकि रामजीको न जाने कब जम्हाई आ जाय ! यहाँ रामजीको ऐसी जम्हाई आयी कि उनका मुख खुला ही रह गया, बन्द हुआ ही नहीं ! यह देखकर सीताजी बड़ी व्याकुल हो गयीं कि न जाने रामजीको क्या हो गया है ! भरतादि सभी भाई आ गये । वैद्योंको बुलाया गया तो वे भी कुछ कर नहीं सके । वशिष्ठजी आये तो उनको आश्चर्य हुआ कि ऐसी चिन्ताजनक स्थितिमें हनुमान्‌जी दिखायी नहीं दे रहे हैं ! और सब तो यहाँ हैं, पर हनुमान्‌जी कहाँ है ? खोज करनेपर हनुमान्‌जी छतपर चुटकी बजाते हुए मिले । उनको बुलाया गया और वे रामजीके पास आये तो चुटकी बजाना बन्द करते ही रामजीका मुख स्वाभाविक स्थितिमें आ आया ! अब सबकी समझमें आया कि यह सब लीला हनुमान्‌जीकी चुटकी बजानेके कारण ही थी ! भगवान्‌ने यह लीला इसलिये की थी कि जैसे भूखेको अन्न देना ही चाहिये, ऐसे ही सेवाके लिये आतुर हनुमान्‌जीको सेवाका अवसर देना ही चाहिये, बन्द नहीं करना चाहिये । फिर भरतादि भाइयोंने ऐसा आग्रह नहीं रखा । तात्पर्य है कि संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनोंमें ही हनुमान्‌जी भगवान्‌की सेवा करनेमें तत्पर रहते हैं ।

         इस प्रकार हनुमान्‌जीका दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य-भाव बहुत विलक्षण है ! इस कारण हनुमान्‌जीकी ऐसी विलक्षण महिमा है कि संसारमें भगवान्‌से भी अधिक उसका पूजन होता है । जहाँ भगवान्‌ श्रीरामके मन्दिर हैं, वहाँ तो उनके साथ हनुमान्‌जी विराजमान हैं ही, जहाँ भगवान्‌ श्रीरामके मन्दिर नहीं हैं, वहाँ भी हनुमान्‌जीके स्वतन्त्र मन्दिर हैं । उनके मन्दिर प्रत्येक गाँव और शहरमें, जगह-जगह मिलते हैं । केवल भारतमें ही नहीं, प्रत्युत विदेशोंमें भी हनुमान्‌जीके अनेक मन्दिर हैं । इस प्रकार वे रामजीके साथ भी पूजित होते हैं और स्वतन्त्र रूपसे भी पूजित होते हैं । इसलिये कहा गया है‒
मोरे मन प्रभु   अस बिस्वासा ।
राम ते अधिक राम कर दासा ॥
                                   (मानस ७/१२०/८)
          भगवान्‌ शंकर कहते हैं‒
हनुमान्‌ सम    नाहिं बड़भागी ।
नहीं कोउ राम चरन अनुरागी ॥
गिरजा जासु     प्रीति सेवकाई ।
बार बार प्रभु   निज मुख गाई ॥
                                                                  (मानस ७/५०/४-५)
          स्वयं भगवान्‌ श्रीराम हनुमान्‌जीसे कहते हैं‒
मदङ्गे जीर्णतां यातु      यत् त्वयोपकृतं कपे ।
नरः प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम् ॥
                                                    (वाल्मीकि उत्तर ४०/२४)
          ‘कपिश्रेष्ठ ! मैं तो यही चाहता हूँ कि तुमने जो-जो उपकार किये हैं, वे सब मेरे शरीरमें ही पच जायँ ! उनका बदला चुकानेका मुझे कभी अवसर न मिले; क्योंकि उपकारका बदला पानेका अवसर मनुष्यको आपत्तिकालमें ही मिलता है (मैं नहीं चाहता कि तुम कभी संकटमें पड़ो और मैं तुम्हारे उपकारका बदला चुकाऊँ) ।’

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
हनुमान्‌जीकी वियोग-रति भी विचित्र ही है । लौकिक अथवा पारमार्थिक जगत्‌में कोई भी व्यक्ति अपने इष्टका वियोग नहीं चाहता । परन्तु भगवान्‌का कार्य करनेके लिये तथा उनका निरन्तर स्मरण करनेके लिये, उनका गुणानुवाद (लीला-कथा) सुननेके लिये हनुमान्‌जी भगवान्‌से वियोग-रतिका वरदान माँगते हैं‒
यावद् रामकथा वीर   चरिष्यति महीतले ।
तावच्छरीरे वत्स्यन्तु प्राणा मम न संशयः ॥
                                             (वाल्मीकि उत्तर४०/१७)
         ‘वीर श्रीराम ! इस पृथ्वीपर जबतक रामकथा प्रचलित रहे, तबतक निःसन्देह मेरे प्राण इस शरीरमें ही बसे रहें ।’

           कोई प्रेमास्पद भी अपने प्रेमीसे वियोग नहीं चाहता । परन्तु भगवान्‌ श्रीराम जब परमधाम पधारने लगे, तब वे भक्तोंकी सहायता, रक्षाके लिये हनुमान्‌जीको इस पृथ्वीपर ही रहनेकी आज्ञा देते हैं । यह भी एक विशेष बात है ! भगवान्‌ कहते हैं‒
जीविते कृतबुद्धिस्त्वं मा प्रतिज्ञां वृथा कृथाः ।
मत्कथाः प्रचरिष्यन्ति   यावल्लोके हरिश्वर ॥
तावद् रमस्व सुप्रीतो    मद्वाक्यमनुपालयन् ।
एवमुक्तस्तु हनुमान्‌       राघवेण महात्मना ॥
वाक्यं विज्ञापयामास        परं हर्षमवाप च ।
                                            (वाल्मीकिउत्तर १०८/३३-३५)
        ‘हरीश्वर ! तुमने दीर्घकालतक जीवित रहनेका निश्चय किया है । अपनी इस प्रतिज्ञाको व्यर्थ न करो । जबतक संसारमें मेरी कथाओंका प्रचार रहे, तबतक तुम भी मेरी आज्ञाका पालन करते हुए प्रसन्नतापूर्वक विचरते रहो । महात्मा श्रीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर हनुमान्‌जीको बड़ा हर्ष हुआ और वे इस प्रकार बोले‒’
यावत्‌ तव कथा लोके    विचरिष्यति पावनी ॥
तावत् स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपलयन् ।
                                                            (वाल्मीकि उत्तर १०८/३५-३६)
            इसलिये हनुमान्‌जीके लिये आया है‒‘राम चरित सुनिबे को रसिया ।’

        एक बार भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न‒तीनों भाइयोंने माता सीताजीसे मिलकर विचार किया कि हनुमान्‌जी हमें रामजीकी सेवा करनेका मौका ही नहीं देते, पूरी सेवा अकेले ही किया करते हैं । अतः अब रामजीकी सेवाका पूरा काम हम ही करेंगे, हनुमान्‌जीके लिये कोई काम नहीं छोड़ेंगे । ऐसा विचार करके उन्होंने सेवाका पूरा काम आपसमें बाँट लिया । जब हनुमान्‌जी सेवाके लिये सामने आये, तब उनको रोक दिया और कहा कि आजसे प्रभुकी सेवा बाँट दी गयी है, आपके लिये कोई सेवा नहीं है । हनुमान्‌जीने देखा कि भगवान्‌के जम्हाई (जम्भाई) आनेपर चुटकी बजानेकी सेवा किसीने भी नहीं ली है । अतः उन्होंने यही सेवा अपने हाथमें ले ली । यह सेवा किसीके खयालमें ही नहीं आयी थी ! हनुमान्‌जीमें प्रभुकी सेवा करनेकी लगन थी । जिसमें लगन होती है, उसको कोई-न-कोई सेवा मिल ही जाती है । अब हनुमान्‌जी दिनभर रामजीके सामने ही बैठे रहे और उनके मुखकी तरफ देखते रहे; क्योंकि रामजीको किस समय जम्हाई आ जाय, इसका क्या पता ? जब रात हुई, तब भी हनुमान्‌जी उसी तरह बैठे रहे । भरतादि सभी भाइयोंने हनुमान्‌जीसे कहा कि रातमें आप यहाँ नहीं बैठ सकते, अब आप चले जायँ । हनुमान्‌जी बोले कैसे चला जाऊँ ? रातको न जाने कब रामजीको जम्हाई आ जाय !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
         सभी रतियोंकी दो अवस्थाएँ मानी गयी हैं—संयोग (सम्भोग) और वियोग (विप्रलम्भ) । संयोग-रतिमें पत्नी भोजनादिके द्वारा पतिकी सेवा करती है और वियोग-रतिमें (पतिके दूर होनेसे) वह पतिका स्मरण-चिन्तन करती है । वियोग-रतिमें प्रेमास्पदकी निरन्तर मानसिक सेवा होती है । अतः संयोग-रतिकी अपेक्षा वियोग-रतिको श्रेष्ठ माना गया है । चैतन्य महाप्रभुने भी इस वियोग-रतिका विशेष आदर किया है । इसमें भी ‘परकीया माधुर्य-रति’ की वियोगावस्था सबसे ऊँची है, जिसमें प्रेमी और प्रेमास्पदमें नित्ययोग रहता है । प्रेम-रसकी वृद्धिके लिये इस नित्ययोगमें चार अवस्थाएँ होती हैं‒
           १-नित्ययोगमें योग
           २-नित्ययोगमें वियोग
           ३- वियोगमें नित्ययोग
           ४-वियोगमें वियोग

       प्रेमी और प्रेमास्पदका परस्पर मिलन होना ‘नित्ययोगमें योग’ है । प्रेमास्पदसे मिलन होनेपर भी प्रेमीमें यह भाव आ जाता है कि प्रेमास्पद कहीं चले गये हैं‒यह ‘नित्ययोगमें वियोग’ है । प्रेमास्पद सामने नहीं हैं, पर मनसे उन्हींका गाढ़ चिन्तन हो रहा है और वे मनसे प्रत्यक्ष मिलते हुए दिख रहे हैं‒यह ‘वियोगमें नित्ययोग’ है । प्रेमास्पद थोड़े समयके लिये सामने नहीं आये, पर मनमें ऐसा भाव है कि उनसे मिले बिना युग बीत गया‒यह ‘वियोगमें वियोग’ है । वास्तवमें इन चारों अवस्थाओंमें प्रेमास्पदके साथ नित्ययोग ज्यों-का-त्यों बना रहता है, वियोग कभी होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं । प्रेमका आदान-प्रदान करनेके लिये ही प्रेमी और प्रेमास्पदमें संयोग-वियोगकी लीला हुआ करती है ।

     हनुमान्‌जीमें संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनों ही विलक्षणरूपसे विद्यमान हैं । संयोगकालमें वे भगवान्‌की सेवामें ही रत रहते हैं और वियोगकालमें भगवान्‌के स्मरण-चिन्तनमें डूबे रहते हैं । संयोग-रतिमें प्रेमी खुद भी सुख लेता है; जैसे पतिको सुख देनेके साथ-साथ पत्नी खुद भी सुखका अनुभव करती है । परन्तु हनुमान्‌जीकी संयोग-रतिमें किंचिन्मात्र भी अपना सुख नहीं है । केवल भगवान्‌के सुखमें ही उनका सुख है‒‘तत्सुखे सुखित्वम्’ । वे तो भगवान्‌को सुख पहुँचाने, उनकी सेवा करनेके लिये सदा आतुर रहते हैं, छटपटाते रहते हैं‒
राम काज करिबे को आतुर । (हनुमानचालीसा)
राम काजू कीन्हें बिनु मोही कहाँ बिश्राम ॥ (मानस ५/१)

      एक बार सुबह हनुमान्‌जीको भूख लग गयी तो वे माता सीताजीके पास गये और बोले कि माँ ! मेरेको भूख लगी है, खानेके लिये कुछ दो । सीताजीने कहा कि बेटा ! मैंने अभीतक स्नान नहीं किया है । तुम ठहरो, मैं अभी स्नान करके भोजन देती हूँ । सीताजीने स्नान करके श्रृंगार किया । उनकी माँगमें सिन्दूर देखकर सहज सरल हनुमान्‌जीने पूछा कि माँ ! आपने यह सिन्दूर क्यों लगाया है ? सीताजीने कहा कि बेटा ! इसको लगानेसे तुम्हारे स्वामीकी आयु बढ़ती है । ऐसा सुनकर हनुमान्‌को विचार आया कि अगर सिन्दूरकी एक रेखा खींचनेसे रामजीकी आयु बढ़ती है, तो फिर पूरे शरीरमें सिन्दूर लगानेसे उनकी आयु कितनी बढ़ जायगी ! सीताजी रसोईमें गयीं तो हनुमान्‌जी श्रृंगार कक्षमें चले गये और उन्होंने सिन्दूरकी डिबियाको नीचे पटक दिया । सब सिन्दूर नीचे बिखर गया और हनुमान्‌जी वह सिन्दूर अपने पूरे शरीरपर लगा लिया ! अब मेरे प्रभुकी आयु खूब बढ़ जायगी‒ऐसा सोचकर हनुमान्‌जी बड़े हर्षित हो गये और भूख-प्यासको भूलकर सीधे रामजीके दरबारमें पहुँच गये ! उनको इस वेशमें देखकर सभी हँसने लगे । रामजीने पूछा कि हनुमान्‌ ! आज तुमने अपने शरीरपर सिन्दूरका लेप कैसे कर लिया ? हनुमान्‌जी बोले कि प्रभो ! माँके थोड़ा-सा सिन्दूर लगानेसे आपकी आयु बढ़ती है‒ऐसा जानकर मैंने पूरे शरीरपर ही सिन्दूर लगाना शुरू कर दिया है, जिससे आपकी आयु खूब खूब बढ़ जाय ! रामजीने कहा कि बहुत अच्छा ! अब आगेसे जो भक्त तुम्हारेको तेल और सिन्दूर चढ़ायेगा, उसपर मैं बहुत प्रसन्न होऊँगा !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
        माधुर्य-रतिके दो भेद हैं‒स्वकीया और परकीया । ‘स्वकीया माधुर्य-रति’ में पति-पत्नीके सम्बन्धका भाव रहता है । पतिव्रता स्त्री अपने माता, पिता, भाई, कुल आदि सबका त्याग करके अपने-आपको पतिकी सेवामें अर्पित कर देती है । इतना ही नहीं, वह अपने गोत्रका भी त्याग करके पतिके गोत्रकी बन जाती है* । अपना तन, मन, धन, बल, बुद्धि आदि सब कुछ पतिके अर्पण करके सर्वथा पतिके परायण हो जाती है । उसमें दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य‒सभी भाव विद्यमान रहते हैं । वह दासीकी तरह पतिकी सेवा करती है, मित्रकी तरह पतिको उचित सलाह देती है और माताकी तरह भोजन, वस्त्र आदिसे पतिका पालन करती है तथा उसके सुख-आरामका खयाल रखती है
 
       ‘परकीया माधुर्य-रति’ में अपनी पत्नीसे भिन्न स्त्री (परनारी) के सम्बन्धका और अपने पतिसे भिन्न पुरुष (परपुरुष या उपपति) के सम्बन्धका भाव रहता है । यद्यपि लौकिक दृष्टिसे यह सम्बन्ध व्यभिचार होनेसे महान्‌ पतन करनेवाला है, तथापि पारमार्थिक दृष्टिसे इस सम्बन्धका भाव बहुत उन्नति करनेवाला है । यद्यपि पत्नी अपने पतिकी सेवा करती है, तथापि वह अधिकारपूर्वक पतिसे यह आशा भी रखती है कि वह रोटी, कपड़ा, मकान आदि जीवन-निर्वाहकी वस्तुओंका प्रबन्ध करे और बाल-बच्चोंके पालन-पोषण, विद्याध्ययन, विवाह आदिकी व्यवस्था करे । परन्तु परकीया-भावमें अपने इष्टको सुख पहुँचानेके सिवाय कोई भी कामना या स्वार्थ नहीं रहता । स्वकीया-भावकी अपेक्षा परकीया-भावमें अपने प्रेमास्पदका चिन्तन भी अधिक होता है और उससे मिलनेकी इच्छा भी तीव्र होती है । स्वकीया-भावमें तो हरदम साथमें रहनेसे प्रेमास्पदके आचरणोंको लेकर उसमें दोषदृष्टि भी हो सकती है; परन्तु परकीया-भावमें प्रेमास्पदमें दोषदृष्टि होती ही नहीं । यद्यपि लौकिक परकीया-भावमें अपने सुखकी इच्छा भी रहती है, तथापि पारमार्थिक परकीया-भावमें भक्तके भीतर अपने सुखकी किंचिन्मात्र भी इच्छा नहीं रहती । उसमें केवल एक ही लगन रहती है कि प्रेमास्पद (भगवान्‌) को अधिक-से-अधिक सुख कैसे पहुँचे ! उसका अहंभाव भगवान्‌में लीन हो जाता है ।
 
           हनुमान्‌जीका भाव स्वकीया अथवा परकीया माधुर्य-रतिसे भी श्रेष्ठ है ! उन्होंने वानरका शरीर इसलिये धारण किया है कि उनको अपने प्रेमास्पदसे अथवा दूसरे किसीसे किंचिन्मात्र भी कोई वस्तु लेनेकी जरूरत न पड़े । उनको न रोटीकी जरूरत है, न कपड़ेकी जरूरत है, न मकानकी जरूरत है, न बाल-बच्चोंके देखभालकी जरूरत है, न मान-बड़ाई आदिकी जरूरत है ! वानर तो जंगलमें फल-फुल-पत्ते खाकर और पेड़ोंपर रहकर ही जीवन-निर्वाह कर लेता है । लौकिक परकीया-भावमें प्रेमीका अपने माता-पिता, भाई-बहन आदिके साथ भी सम्बन्ध रहता है; परन्तु हनुमान्‌जीका एक भगवान्‌ श्रीरामके सिवाय और किसीसे सम्बन्ध है ही नहीं ।
 
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
 *भक्तके लिये कहा गया है‒‘साह ही को गोतु होत है गुलाम को ।’
                                                                           (कवितावली, उत्तर॰ १०७) 

    कार्ये दासी रतौ   रम्भा   भोजने जननीसमा ।
        विपत्सु मन्त्रिणी भर्तुः सा च भार्या पतिव्रता ॥
                                                      (पद्मपुराण, सृष्टि॰ ४७/५६)
 

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